आगमों का परिचय एवं प्रयोजन निरूपण। Introduction and purpose of the Agamas. #Tantra. #Gyan. #Ved. #Agam_Parichaya. #Sadhna


तन्त्र या आगम, आजकल सुप्रसिद्ध रूप से वार्ताओं एवं लेखों में दृष्टिगत होता है किंतु फिर भी जन समूह में इनको लेकर इतनी भ्रांति एवं संशय हैं, यह आश्चर्य की बात है।

इस के निराकरणार्थ ही हम यह लेख प्रेषित कर रहें हैं, आप सभी पाठकगण इसका अध्ययन कर लाभ को प्राप्त हों।


आगामों का उद्गम या प्रदुर्भाव:—

वेद के छह अङ्ग है-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष । 

वाराहीतन्त्र में तन्त्रशास्त्र को कल्प के अन्तर्गत माना गया है-


कल्पश्चतुर्विधः प्रोक्त आगमो डामरस्तथा ।

यामलश्च तथा तन्त्रं तेषां भेदाः पृथक् पृथक् ॥

जिसमें सृष्टि-प्रलय मन्त्रनिर्णय यन्त्रनिर्णय, देवतासंस्थान, तीर्थवर्णन, आश्रमधर्म, वर्णव्यवस्था, भूत आदि के संस्थान, ज्योतिष, पुराणाख्यान, शौचाशौचनिर्णय, दानधर्म, युगधर्म, लोकव्यवहार, आध्यात्मिक विषयों का विवेचन हो उसे तन्त्र कहते हैं। निष्कर्ष यह है कि समस्त भौतिक विस्तार और समस्त आध्यात्मिक अनन्त तन्त्र की परिधि में आता है ।


तन्त्र का एक नाम आगम भी है। आगम शिवमुखोक्त शास्त्र हैं-

आगतं शिववक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजाश्रुतौ । 

मतं च वासुदेवेन (कार्त्तिकेयेन) तस्मादागम उच्यते ॥


श्रुतिस्तु द्विविधा प्रोक्ता तान्त्रिकी वैदिकीति च ।

महर्षि हारीत के इस वचन के आधार पर तन्त्र को भी श्रुति कहा जाता है । यह मान्यता असमीचीन नहीं है। जिस प्रकार वेदों को नारायण का निःश्वास कहा गया है (यस्य निःश्वसितं वेदाः ) और वे अपौरुषेय तथा अनादि हैं उसी प्रकार तन्त्र भी शिवमुखोक्त शास्त्र हैं जो ऋषियों की गुरुशिष्य परम्परा में सतत प्रवहमान होते रहे हैं-


शैवादीनि रहस्यानि पूर्वमासन्महात्मनाम् ।

ऋषीणां वक्त्रकुहरे तेष्वेवानुग्रह किया ॥

 (शि० दृ० ७)



आगामों की उत्पत्ति का प्रयोजन:


अब महानिर्वाण तंत्र के प्रथम अध्याय से प्रमाण प्रदर्शित किए जा रहें हैं  जो यह सिद्ध करने के लिए अत्यंत सक्षम हैं की स्मृति ,आगम आदि सभी शास्त्रों की रचना वेदाचार एवं वेदों को हीं समझने के लिए हुई है।


वेदार्थयुक्तशास्त्राणि स्मृतिरूपाणि भूतले । 

तदा त्वं प्रकटीकृत्य तपःस्वाध्याय दुर्बलान् ॥ 

लोकानतारयः पापाद्दुःखशोकामयप्रदात।

त्वां विना कोऽस्तिन् जीवानां रससारसागरे ॥

(महनिर्वाण तन्त्र, अध्याय 1, 33–34)

उस कालमें आपने वेदार्थमय स्मृतिशास्त्र पृथ्वीपर प्रगट करके तप करने और वेद पढ़ने में असमर्थ लोगों को दुःख, शोक और पीड़ादायक पापसे उद्धार किया था, आपके सिवाय इस संसाररूपी घोर समुद्रसे और कौन जीवोंकी रक्षा कर सकता है।


भर्त्ता पाता समुद्धर्त्ता पितृवत्प्रियकृत्प्रभुः । 

ततोऽपि द्वापरे प्राप्ते स्मृत्युक्तसुकृतोज्झिते ॥ ३५ ॥

धर्मार्द्धलोपे मनुजे आधिव्याधिसमाकुले । 

संहिताद्युपदेशेन त्वयैवोद्वारिता नराः ॥ ३६ ॥

जिस प्रकार पिता अपने पुत्रको पालता है वैसे ही आप अधम जीवके पालन करनेवाले हैं. भरण पोषण करनेवाले, उसका प्रिय करनेवाले और उद्धार करनेवाले आप ही हैं. आप सबके स्वामी और कल्याणविधाता हैं। इसके उपरांत जब द्वापरयुग आया तब स्मृतिसम्मत शुभ क्रियादिका ह्रास होने लगा।उस कालमें आधा धम्मलोप हो गया इस कारण मनु- व्यगण अनेक प्रकारको आधिव्याधियोंसे पूर्ण हुए, इस समय में आपने संहिताशास्त्रका उपदेश देकर मनुष्यों का उद्धार किया।


आयाते पापिनि कलौ सर्वधर्मविलोपिनि ।

दुराचारे दुष्प्रपञ्च दुष्टकर्मप्रवर्तके ॥ ३७ ॥

न वेदाः प्रभवस्तेत्र स्मृतीनां स्मरणं कुतः । 

नानेतिहासयुक्तानां नानामार्गप्रदर्शिनाम् ॥ ३८ ॥

इस समय में सर्व धर्मका लोप करनेवाले, दुष्टकर्मको करा नेवाले, दुराचारी, खोटे प्रपंचको करानेवाले कलियुगका अधिकार हुआ।इस काल में वेदका प्रभाव खर्व हो गया, स्मृतियें भी विस्मृतिके समुद्र में डूब गयीं। इस समय में अनेक प्रकारके इतिहासों से पूर्ण अनेक प्रकार के मार्गोंको दिखानेवाले।


बहुलानां पुराणानां विनाशो भविता विभो । 

तदा लोका भविष्यन्ति धर्मकर्मबहिर्मुखाः ॥ ३९ ॥

उच्छृखला मदोन्मत्ताः पापकर्मरताः सदा । 

कामुका लोलुपाः क्रूरा निष्ठुरा दुर्मुखाः शठाः ॥४०॥ 

बहुत से पुराणोंका नामतक प्रकाशित नहीं रहेगा । हे विभो ! इस कारण उस समय सब ही जन धर्मकर्मसे विमुख हो जायँगे।कलिके जीवगण शृंखलारहित अर्थात् (वेदादिरूप बेड़ियां जिनकी कट गयी हैं) मन्दोन्मत्त, सर्वदा पापमें लिप्त कामी, धनके लालची, क्रूर, निष्ठुर, अप्रियभाषी और शठ हो जायँगे।


इसी प्रकार अन्य पापाचारों में लिप्त होकर मनुष्य पतन को प्राप्त न हो, एवं उन सभी पापों के दोषों से अलिप्त रहकर परमार्थ की और अग्रसर हो इसी उद्देश्य से तंत्रों की सुरचना हुई।


नैव पानादिनियमो भक्ष्याभक्ष्यविवेचनम् । 

धर्मशास्त्रे सदा निन्दा साधुद्रोहो निरन्तरम् ॥४९॥

सत्कथालापमात्रञ्च न तेषां मनसि कचित् ।

त्वया कृतानि तन्त्राणि जीवोद्धरणहेतवे ॥ ५० ॥ 

इनके भक्ष्याभक्ष्य का विचार या पानादिका नियम नहीं रहेगा, यह सदा धर्मशास्त्रकी निंदा और साधुओं का द्रोह करेंगे। इनके मन में सत्कथाका अलाप कभी स्थानको प्राप्त नहीं होगा. ( जो हो ) जीवोंका उद्धार करने के लिये आपने 'तंत्र- शास्त्र' बनाया है।


यद्यपि कई शास्त्रों एवं आचार्यों ने आगमों को वेदबाह्य माना है, तथापि वेदमर्यादा की रक्षा हेतु एवं जातिधर्म के पालन हेतु, इन आगमों की रचना की गई थी एवं वेदसम्मत होने से इनकी शास्त्रीयता की प्रमाणिकता भी सिद्ध होती है। अतः वेद सम्मत अर्थ एवं विधान सर्वथा नि:शंक रूप से ग्राह्य है।

इसलिए भगवान शिव महादेवी से कहते हैं कि:—


वेदानामागमानां च तन्त्राणां च विशेषतः । 

सारसुद्धृत्य देवेशि तवाग्रे कथ्यते मया ॥

हे देवि ! समस्त वेद, आगम और विशेष करके तंत्रों के सारको उद्धृत करके मैं तुम्हारे आगे कहता हूँ। 


।।इति शम्।।











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