शस्त्र पूजन वैदिक विधि
शस्त्र पूजन विधि
पहले दशमी के दिन मां दुर्गा जी के षोडशोपचार पुजा करना है१) प्रातः काल शौच्यादि के बाद
२) मंदिर में मां दुर्गा जी के चित्र वा प्रतिमा के साथ गोलाकार पींड जो आटे या गोबर या कवेल मिट्टी के हो उसे यथा शक्ति जो भी स्थापित कर सकते हैं
३) अब कम से कम पंचोपचारिक पदार्थ से पूजन करना चाहिए (आसन धुप दीप पुष्प और नैवेद्य )
दुर्गा षोडशोपचार पूजन
दैनिक गणेश पुजा
पवित्र करणं
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा इति मंत्रेण पवित्र करणं
आचमन
प्राणायाम
संकल्पं
संकल्पं
घंटानादम्
आगमार्थं तु देवानां गमनार्थं तु रक्षसाम् ।
घण्टारवं करोम्यादौ देवताह्वान लाञ्छनम्।।
आगमार्थं तु देवानां गमनार्थं तु रक्षसाम् ।
घण्टारवं करोम्यादौ देवताह्वान लाञ्छनम्।।
शंख पुजा
ॐ पंचजन्याय विद्महे पद्मगर्भाय धीमहि तन्नो शंख: प्रचोदयात्।।
स्वस्ति मन्त्र:
ॐ पंचजन्याय विद्महे पद्मगर्भाय धीमहि तन्नो शंख: प्रचोदयात्।।
स्वस्ति मन्त्र:
ॐ भद्रं कर्णेभि शृणुयाम देवा:।
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।।
स्थिरै रंगै स्तुष्टुवां सहस्तनुभि::।
व्यशेम देवहितं यदायु:।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा
स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:।
स्वस्ति न स्तार्क्ष्र्यो अरिष्ट नेमि:।।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।2।
करन्यास /अंगन्यास ।
ॐ दंअंगुष्ठाभ्यां नम: - हृदयाय नम:।
ॐ दुं तर्जनीभ्यां नम: - शिरसे स्वाहा।
ॐ दु़ं मध्यमाभ्यां नम: - शिकाये वषट्।
ॐ दुं अनामिकाभ्यां नम: - कवचाय हुम्।
ॐ दु़ं कनिष्ठिकाभ्यां नम: - नैत्रत्रयाय वौषट।
ॐ दुं करतलकरपृष्ठाभ्यामं नम : - अस्त्राय फट्।
१) ॐ गं गणपतये नमः
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।।
स्थिरै रंगै स्तुष्टुवां सहस्तनुभि::।
व्यशेम देवहितं यदायु:।
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा
स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा:।
स्वस्ति न स्तार्क्ष्र्यो अरिष्ट नेमि:।।
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।2।
करन्यास /अंगन्यास ।
ॐ दंअंगुष्ठाभ्यां नम: - हृदयाय नम:।
ॐ दुं तर्जनीभ्यां नम: - शिरसे स्वाहा।
ॐ दु़ं मध्यमाभ्यां नम: - शिकाये वषट्।
ॐ दुं अनामिकाभ्यां नम: - कवचाय हुम्।
ॐ दु़ं कनिष्ठिकाभ्यां नम: - नैत्रत्रयाय वौषट।
ॐ दुं करतलकरपृष्ठाभ्यामं नम : - अस्त्राय फट्।
१) ॐ गं गणपतये नमः
गणपतिं अवाहयामि पुजायमि स्थापयामि
क्षं क्षेत्रपालस्त्वं भूत प्रेत गणसहा वेतालादि परिवारः डाकिन्यश्च महाबलः ।
भो भो क्षेत्रपालस्त्वं कर्मसाक्षी ह्यविघ्नकृत यावद्पूजां करिष्यामि तावद् त्वां स्थिरो भवः ।।
क्षं क्षेत्रपालस्त्वं भूत प्रेत गणसहा वेतालादि परिवारः डाकिन्यश्च महाबलः ।
भो भो क्षेत्रपालस्त्वं कर्मसाक्षी ह्यविघ्नकृत यावद्पूजां करिष्यामि तावद् त्वां स्थिरो भवः ।।
२) ॐ क्षं क्षेत्रपालाय नमः
पं परमात्मने नमःअवाहयामि पुजायमि स्थापयामि
गृह देवता आवाहन
तीन बार विष्णवे नमः
नवग्रह स्तोत्र
जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महदद्युतिम्।
तमोरिंसर्वपापघ्नं प्रणतोSस्मि दिवाकरम्॥१॥
ॐ ह्रां ह्रीं हौं स: सूर्याय नम:। सुर्यदेवं आवाहयामि पुजायमि स्थापयामि।
जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महदद्युतिम्।
तमोरिंसर्वपापघ्नं प्रणतोSस्मि दिवाकरम्॥१॥
ॐ ह्रां ह्रीं हौं स: सूर्याय नम:। सुर्यदेवं आवाहयामि पुजायमि स्थापयामि।
दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णव संभवम्।
नमामि शशिनं सोमं शंभोर्मुकुट भूषणम्॥२॥
ॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:।
चन्द्र देवं आवाहयामि पुजायमि स्थापयामि
धरणीगर्भ संभूतं विद्युत्कांति समप्रभम्।
कुमारं शक्तिहस्तं तं मंगलं प्रणाम्यहम्॥३॥
ॐ क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नमः भौम ग्रहं आवाहयामि पुजायमि स्थापयामि।
प्रियंगुकलिकाश्यामं रुपेणाप्रतिमं बुधम्।
सौम्यं सौम्यगुणोपेतं तं बुधं प्रणमाम्यहम्॥४॥
ॐ ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम:
ॐ बुध ग्रहं आवाहयामि पुजायमि स्थापयामि।
देवानांच ऋषीनांच गुरूं कांचन सन्निभम्।
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥५॥
ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरवे नम:
ॐ बृहस्पति ग्रहं आवाहयामि पुजायमि स्थापयामि।
हिमकुंद मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरूम्।
सर्वशास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्॥६॥
ॐ द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम: शुक्र ग्रहं आवाहयामि पुजायमि स्थापयामि।
नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तंड संभूतं तं नमामि शनैश्चरम्॥७॥
ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम: ॐ शनि ग्रहं पुजायमि स्थापयामि।
अर्धकायं महावीर्यं चंद्रादित्य विमर्दनम्।
सिंहिकागर्भसंभूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्॥८॥
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रों स: राहवे नम: राहु ग्रहं आवाहयामि पुजायमि स्थापयामि।
पलाशपुष्पसंकाशं तारकाग्रह मस्तकम्।
रौद्रंरौद्रात्मकं घोरं तं केतुं प्रणमाम्यहम्॥९॥
ॐ स्रां स्रीं स्रों स: केतवे नम:केतु ग्रहं आवाहयामि पुजायमि स्थापयामि।
ध्यान श्लोक
शुक्लाम्बर धरं विष्णुं शशि वर्णम् चतुर्भुजम् ।
प्रसन्न वदनं ध्यायेत् सर्व विघ्नोपशान्तये।।
अथ आवाहन:
सर्वमंगलमंगल्ये शिव सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तु ते॥
ब्रह्मरूपे सदानंद परमानंद स्वरूपिणी।
द्रुत सिद्धिप्रदे देवी नारायणी नमोस्तु ते॥
शरणगतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्त्तिहरे देवी नारायणी नमोस्तु ते॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
आवाहनं करोमि॥
सर्वमंगलमंगल्ये शिव सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणी नमोस्तु ते॥
ब्रह्मरूपे सदानंद परमानंद स्वरूपिणी।
द्रुत सिद्धिप्रदे देवी नारायणी नमोस्तु ते॥
शरणगतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्त्तिहरे देवी नारायणी नमोस्तु ते॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
आवाहनं करोमि॥
२)आसन
अनेका रत्नासंयुक्तम् नानमणिगननवितम्।
कार्तस्वरमयम दिव्यासनम् प्रतिगृह्यताम्।
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
आसनम् समर्पयामि॥
३.पाद्य प्रक्षालनम्
गंगादि सर्वतीर्थेभ्यो माया प्रस्थानायृतम्।
तोयमेतत्सुखस्पर्श पद्यार्थम प्रतिगृह्यतम॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
पाद्यं समर्पयामि॥
४. अर्घ्य दान
गन्धपुष्पक्षतार्युक्तमर्ग्यम् सम्पादितम् मया।
गृहाण त्वं महादेवी प्रसन्ना भव सर्वदा।।
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
पाद्यं समर्पयामि॥
गन्धपुष्पक्षतार्युक्तमर्ग्यम् सम्पादितम् मया।
गृहाण त्वं महादेवी प्रसन्ना भव सर्वदा।।
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
पाद्यं समर्पयामि॥
५.आचमन दान
अचम्यतम त्वय देवी भक्ति में हाइचलम कुरु।
इप्सितं में वरम देही परात्रा चा परम गति॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
अचमनियम् जलम् समर्पयामि॥
६. स्नान
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
सन्निय जलम् समर्पयामि॥
७. वस्त्र
वस्त्रम् च सोमा दैवत्यम् लज्जयस्तु निवारणम।
मया निवेदितं भक्ति गृहाण परमेश्वरी।।
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
वस्त्रम् समर्पयामि॥
वस्त्रम् च सोमा दैवत्यम् लज्जयस्तु निवारणम।
मया निवेदितं भक्ति गृहाण परमेश्वरी।।
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
वस्त्रम् समर्पयामि॥
८.उपहारं
हारा कनकना केयूरा मेखला कुंडलादिभिह।
रत्नाध्याम कुंडलोपेटम भूषणम प्रतिगृह्यतम॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
हारा कनकना केयूरा मेखला कुंडलादिभिह।
रत्नाध्याम कुंडलोपेटम भूषणम प्रतिगृह्यतम॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
आभूषणं समर्पयामि॥
९.चन्दन
परमानंद सौभाग्यम परिपूर्णम दिगंतरे।
गृहण परमम गंधम कृपाय परमेश्वरी
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
चन्दनम् समर्पयामि।
९.चन्दन
परमानंद सौभाग्यम परिपूर्णम दिगंतरे।
गृहण परमम गंधम कृपाय परमेश्वरी
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
चन्दनम् समर्पयामि।
१०.कुंकुम्
कुमकुम कांतिदं दिव्यं कामिनी काम संभवं।
कुमकुमेनारचिटे देवी प्रसाद परमेश्वरी
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
कुङ्कुमं समर्पयामि।।
११. कज्जलार्पण
कज्जलम कज्जलम रामयम सुभगे शांतिकारीके।
करपुरा ज्योतिरुत्पन्नम गृहण परमेश्वरी
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
कज्जलम् समर्पयामि॥
१२. मृग द्रव्यप्राण
१. सौभाग्य
सौभाग्यसूत्रम वरदे सुवर्णा मणि संयुक्त।
कंठे बदनामी देवेशी सौभाग्यम् देही में सदा॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
सौभाग्यसूत्रम् समर्पयामि॥
२. सुगन्धित द्रव्य
चंदनागरु करपुरैः संयुक्तम कुंकुमं तथा।
कस्तूरीदि सुगंधाश्चा सर्वंगेशु विलेपनम्॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
सुगंधिताद्रव्यं समर्पयामि॥
चंदनागरु करपुरैः संयुक्तम कुंकुमं तथा।
कस्तूरीदि सुगंधाश्चा सर्वंगेशु विलेपनम्॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
सुगंधिताद्रव्यं समर्पयामि॥
३. हरिद दान
हरिद्ररंजित देवी सुखा सौभाग्यदायिनी।
तस्मत्तवं पुजायमयात्रा सुखाशांतिम प्रयाच मे॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
हरिद्राचूर्णम् समर्पयामि॥
४. अक्षत दान
रंजीता कंकुमौद्येन न अक्षतशचतिशोभनः।
ममाइशा देवी दनेना प्रसन्ना भव शोभने॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
अक्षतम् समर्पयामि॥
१३. पुष्पांजलि
मंदरा पारिजातदि पाटली केतकनी चा।
जाति चंपक पुष्पाणी गृहणमणि शोभने॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
पुष्पांजलिर्समर्पयामि।।
१४. बिल्वपत्र
अमृतोद्भव श्रीवृक्षो महादेवी प्रिया सदा।
बिल्वपत्रम प्रयाचमी पवित्रम् ते सुरेश्वरी॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
बिल्वपत्राणि समर्पयामि।।
१५. धूप दान
दशंग गुग्गुल धूपम चंदनागरु संयुक्तम।
समरपिताम् माया भक्त महादेवी! प्रतिगृह्यतम:
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
धूपम् घ्रपयामी॥
१६. दीप दान
घृतवर्त्तिसमायुक्तम महतेजो महोज्जवलम।
दीपम दशयामी देवेशी! सुप्रीता भव सर्वदा
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
दीपम् दर्शयामि॥
१७. नैवेद्यम्
अन्नम चतुर्विद्म् स्वदु रसैः शद्भिः समन्वयम्।
नैवेद्य गृह्यतम देवी! भक्ति में हयाचल कुरु
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
नैवेद्यम् निवेदयामि।।
१८. ऋतू फल
द्राक्षखरजुरा कदलीफला समरकपित्तकम।
नारीकेलेक्षुजंबादी फलानी प्रतिगृह्यताम्॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
ऋतुफलानि समर्पयामि॥
१९. आचमनम्
कमरीवल्लभे देवी करवाचामनमंबाइक।
निरंतरमहं वंदे चरणौ तवा चंडीके
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
आचमनियम् जलम् समर्पयामि॥
२०. नारिक दान
नरिकेलम चा नारंगिम कलिंगमंजीराम तवा।
उर्वरुका चा देवेशी फलनयतनी गह्यतम॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
नारिकेलम् समर्पयामि॥
२१. ताम्बूल
एलावंगम कस्तूरी करपुरैह पुष्पवसीतम।
विटिकम् मुखवसार्थ समर्पयामि सुरेश्वरी॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
ताम्बूलं समर्पयामि।।
२२. दक्षिणा
पूजा फला समृद्धिअर्थ तवाग्रे स्वर्णमेश्वरी।
स्थपितं तेना में प्रीता पूर्णन कुरु मनोरमम॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
दक्षिणा समर्पयामि॥
२३. पूजा और कन्या पूजन
१. पुस्तक पूजा
नमो देवयै महादेवयै शिवायै सत्तम नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियतः प्रणतः स्मताम्।
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
पुस्तकम् पूजयामि॥
२. दीप पूजा
शुभम् भवतु कल्याणमारोग्यम पुष्टिवर्धनम्।
आत्मतत्त्व प्रबोधाय दीपज्योतिर्नमोस्तु ते॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
दीपम् पूजयामि॥
३. कन्यापूज्य
सर्वस्वरूपे! सर्वेशे सर्वशक्ति स्वरुपिणी।
पूजम गृहण कुमारी! जगनमातरनामोस्तु ते
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
कन्याम् पूजयामि॥
24. निरजनी
निरजनं सुमंगलम करपुरेण समन्वितम्।
चन्द्रकवाहनी सद्रिशं महादेवी ! नमोस्तु ते॥
ॐ भुर्भुवाह स्वाः दुर्गादेवयै नमः
कर्पूरा निरजनम् समर्पयामि॥
२५. प्रदक्षिणा
प्रदक्षिणं त्रयं देवी प्रायत्नेन प्राकल्पितम्।
पश्याद्य पवने देवी अंबिकायै नमोस्तु ते॥
ॐ भूर्भुव: स्व: दुर्गादेव्यै नमः
प्रदक्षिणं समर्पयामि॥
२६. क्षमादान
अपराधा शतम् देवी मातक्रितम् च दिन भोजनम्।
क्षम्यताम् पावने देवी देवेश च नमोस्तु ते॥
बाद में दुर्गा अष्ठोत्तर का पारायण करते हुए पुष्प वा अक्षता छडाए
ॐ सती नमः, ॐ साध्वी नमः, ॐ भवप्रीता नमः, ॐ भवानी नमः, ॐ भवमोचनी नमः, ॐ आर्या नमः, ॐ दुर्गा नमः, ॐ जाया नमः, ॐ आधा नमः, ॐ त्रिनेत्रा नमः, ॐ शूलधारिणी नमः, ॐ पिनाक धारिणी नमः, ॐ चित्रा नमः, ॐ चंद्रघंटा नमः, ॐ महातपा नमः, ॐ मनः नमः, ॐ बुद्धि नमः, ॐ अहंकारा नमः, ॐ चित्तरूपा नमः, ॐ चिता नमः, ॐ चिति नमः, ॐ सर्वमन्त्रमयी नमः, ॐ सत्ता नमः, ॐ सत्यानंद स्वरूपिणी नमः, ॐ अनंता नमः, ॐ भाविनी नमः, ॐ भाव्या नमः, ॐ भव्या नमः, ॐ अभव्या नमः, ॐ सदगति नमः, ॐ शाम्भवी नमः, ॐ देवमाता नमः, ॐ चिंता नमः, ॐ रत्नप्रिया नमः, ॐ सर्वविद्या नमः, ॐ दक्षकन्या नमः, ॐ दक्षयज्ञविनाशिनी नमः, ॐ अपर्णा नमः, ॐ अनेकवर्णा नमः, ॐ पाटला नमः, ॐ पाटलावती नमः, ॐ पट्टाम्बरपरिधाना नमः, ॐ कलमंजीर रंजिनी नमः, ॐ अमेय विक्रमा नमः, ॐ क्रूरा नमः, ॐ सुंदरी नमः, ॐ सुरसुन्दरी नमः, ॐ वनदुर्गा नमः, ॐ मातंगी नमः, ॐ मतंगमुनिपूजिता नमः, ॐ ब्राह्मी नमः, ॐ माहेश्वरी नमः, ॐ ऐन्द्री नमः, ॐ कौमारी नमः, ॐ वैष्णवी नमः, ॐ चामुण्डा नमः, ॐ वाराही नमः, ॐ लक्ष्मी नमः, ॐ पुरुषाकृति नमः, ॐ विमला नमः, ॐ उत्कर्षिणी नमः, ॐ ज्ञाना नमः, ॐ क्रिया नमः, ॐ नित्या नमः, ॐ बुद्धिदा नमः, ॐ बहुला नमः, ॐ बहुलप्रेमा नमः, ॐ सर्ववाहनवाहना नमः, ॐ निशुम्भशुम्भहननी नमः, ॐ महिषासुरमर्दिनि नमः, ॐ मधुकैटभहन्त्री नमः, ॐ चण्डमुण्डविनाशिनि नमः, ॐ सर्वअसुरविनाशिनी नमः, ॐ सर्वदानवघातिनी नमः, ॐ सत्या नमः, ॐ सर्वास्त्रधारिणी नमः, ॐ अनेकशस्त्रहस्ता नमः, ॐ अनेकास्त्रधारिणी नमः, ॐ कुमारी नमः, ॐ एक कन्या नमः, ॐ कैशोरी नमः, ॐ युवती नमः, ॐ यति नमः, ॐ अप्रौढ़ा नमः, ॐ प्रोढ़ा नमः, ॐ वृद्धमाता नमः, ॐ बलप्रदा नमः, ॐ महोदरी नमः, ॐ मुक्तकेशी नमः, ॐ घोररूपा नमः, ॐ महाबला नमः, ॐ अग्निज्वाला नमः, ॐ रौद्रमुखी नमः, ॐ कालरात्रि नमः, ॐ तपस्विनी नमः, ॐ नारायणी नमः, ॐ भद्रकाली नमः, ॐ विष्णुमाया नमः, ॐ जलोदरी नमः, ॐ शिवदूती नमः, ॐ कराली नमः, ॐ अनंता नमः, ॐ परमेश्वरी नमः, ॐ कात्यायनी नमः, ॐ सावित्री नमः, ॐ प्रत्यक्षा नमः, ॐ ब्रह्मावादिनी नमः, ॐ सर्वशास्त्रमय नमः श्री दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्
॥श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम्॥ ईश्वर उवाच शतनाम प्रवक्ष्यामि श्रृणुष्व कमलानने। यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥१॥ ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी। आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥२॥ पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः। मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः॥३॥ सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी। अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः॥४॥ शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा। सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी॥५॥ अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती। पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी॥६॥ अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी। वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता॥७॥ ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा। चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः॥८॥ विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा। बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना॥९॥ निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी। मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी॥१०॥ सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी। सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा॥११॥ अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी। कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः॥१२॥ अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा। महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला॥१३॥ अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी। नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी॥१४॥ शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी। कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी॥१५॥ य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम्। नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति॥१६॥ धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च। चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम्॥१७॥ कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्। पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम्॥१८॥ तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि। राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात्॥१९॥ गोरोचनालक्तककुङ्कुमेन सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण। विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः॥२०॥ भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते। विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम्॥२१॥ इति श्रीविश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्तम्।
यज्ञ विधिः
हवन कुंड का अर्थ है हवन की अग्नि का निवासस्थान। हवन कुंड में अग्नि प्रज्वलित करने के पश्चात इस पवित्र अग्नि में फल, शहद, घी, काष्ठ इत्यादि पदार्थों की आहुति प्रमुख होती है। ऐसा माना जाता है कि यदि आपके आसपास किसी बुरी आत्मा इत्यादि का प्रभाव है तो हवन प्रक्रिया इससे आपको मुक्ति दिलाती है। शुभकामना, स्वास्थ्य एवं समृद्धि इत्यादि के लिए भी हवन किया जाता है।
आरती के बाद हवन सामग्री अपने पास रखें। कपूर से आम की सूखी लकड़ियों को जला लें। अग्नि प्रज्ज्वलित होने पर हवन सामग्री की आहुति दें। आखिर में सूखे नारियल में लाल वस्त्र या फिर कलावा बाधें। अब पान, सुपारी, लौंग, बतासा, पूरी, खीर आदि उसके शीर्ष पर स्थापित करें. इसके बाद उसको हवन कुंड में बीचोबीच रखें। अब जो भी हवन सामग्री बची है, उसे इस मंत्र के साथ एक बार में आहुति दें. ‘ओम पूर्णमद: पूर्णमिदम् पुर्णात पूण्य मुदच्यते, पुणस्य पूर्णमादाय पूर्णमेल विसिस्यते स्वाहा’।
यज्ञ विधि
जल से आच्मन तीन बार
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ॥१॥
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ॥२॥
ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि श्री: श्रयतां स्वाहा ॥३॥
अंग स्पर्श
इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि यज्ञ जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें ।
इस मंत्र से मुख का स्पर्श करें
ॐ वाङ्म आस्येऽस्तु ॥
इस मंत्र से नासिका के दोनों भाग
ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु ॥
इससे दोनों आँखें
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु ॥
इससे दोनों कान
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ॥
इससे दोनों भुजाऐं
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु ॥
इससे दोनों जंघाएं
ॐ ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु ॥
इससे सारे शरीर पर जल का मार्जन करें
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु ॥
मंत्रार्थ – हे रक्षक परमेश्वर! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे मुख में वाक् इन्द्रिय पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्य सहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों नासिका भागों में प्राणशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों आखों में दृष्टिशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों कानों में सुनने की शक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरी भुजाओं में पूर्ण आयुपर्यन्त बल विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरी जंघाओं में बल-पराक्रम सहित सामर्थ्य पूर्ण आयुपर्यन्त विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरा शरीर और अंग-प्रत्यंग रोग एवं दोष रहित बने रहें, ये अंग-प्रत्यंग मेरे शरीर के साथ सम्यक् प्रकार संयुक्त हुए सामर्थ्य सहित विद्यमान रहें।
ईश्वर की स्तुति - प्रार्थना – उपासना के मंत्र
ॐ विश्वानी देव सवितर्दुरितानि परासुव ।
यद भद्रं तन्न आ सुव ॥१॥
मंत्रार्थ – हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूर कर दीजिए, और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं, उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये।
हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत् ।
स दाघार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥२॥
मंत्रार्थ – सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व और सृष्टि रचना के आरम्भ में स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदि पदार्थों को उत्पन्न करके अपने अन्दर धारण कर रखा है, वह परमात्मा सम्यक् रूप से वर्तमान था। वही उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी केवल अकेला एक ही था। उसी परमात्मा ने इस पृथ्वीलोक और द्युलोक आदि को धारण किया हुआ है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: ।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥३॥
मंत्रार्थ – जो परमात्मा आत्मज्ञान का दाता शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक बल का देने वाला है, जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसकी शासन, व्यवस्था, शिक्षा को सभी मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्षसुखदायक है, और जिसको न मानना अर्थात भक्ति न करना मृत्यु आदि कष्ट का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥४॥
मंत्रार्थ – जो प्राणधारी चेतन और अप्राणधारी जड जगत का अपनी अनंत महिमा के कारण एक अकेला ही सर्वोपरी विराजमान राजा हुआ है, जो इस दो पैरों वाले मनुष्य आदि और चार पैरों वाले पशु आदि प्राणियों की रचना करता है और उनका सर्वोपरी स्वामी है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च द्रढा येन स्व: स्तभितं येन नाक: ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥५॥
मंत्रार्थ – जिस परमात्मा ने तेजोमय द्युलोक में स्थित सूर्य आदि को और पृथिवी को धारण कर रखा है, जिसने समस्त सुखों को धारण कर रखा है, जिसने मोक्ष को धारण कर रखा है, जो अंतरिक्ष में स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों आदि का विशेष नियम से निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ता है, हम लोग उस शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तनो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥६॥
मंत्रार्थ – हे सब प्रजाओं के पालक स्वामी परमत्मन! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन और इन अर्थात दूर और पास स्थित समस्त उत्पन्न हुए जड-चेतन पदार्थों को वशीभूत नहीं कर सकता, केवल आप ही इस जगत को वशीभूत रखने में समर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग अपकी योगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ की हमारी कामना सिद्ध होवे, जिससे की हम उपासक लोग धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये घामन्नध्यैरयन्त ॥७॥
मंत्रार्थ – वह परमात्मा हमारा भाई और सम्बन्धी के समान सहायक है, सकल जगत का उत्पादक है, वही सब कामों को पूर्ण करने वाला है। वह समस्त लोक-लोकान्तरों को, स्थान-स्थान को जानता है। यह वही परमात्मा है जिसके आश्रय में योगीजन मोक्ष को प्राप्त करते हुए, मोक्षानन्द का सेवन करते हुए तीसरे धाम अर्थात परब्रह्म परमात्मा के आश्रय से प्राप्त मोक्षानन्द में स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हैं। उसी परमात्मा की हम भक्ति करते हैं।
अग्ने नय सुपथा राय अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेँम ॥८॥
मंत्रार्थ – हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक, दिव्यसामर्थयुक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति कराने के लिये धर्मयुक्त, कल्याणकारी मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं। हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिये । इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना सत्कार व नम्रतापूर्वक करते हैं।
॥अथ अग्निहोत्रमंत्र:॥
» जल से आचमन करने के 3 मंत्र
ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ॥१॥
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ॥२॥
ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि श्री: श्रयतां स्वाहा ॥३॥
मंत्रार्थ - हे सर्वरक्षक अमर परमेश्वर! यह सुखप्रद जल प्राणियों का आश्रयभूत है, यह हमारा कथन शुभ हो। यह मैं सत्यनिष्ठापूर्वक मानकर कहता हूँ और सुष्ठूक्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ॥1॥
हे सर्वरक्षक अविनाशिस्वरूप, अजर परमेश्वर! आप हमारे आच्छादक वस्त्र के समान अर्थात सदा-सर्वदा सब और से रक्षक हों, यह सत्यवचन मैं सत्यनिष्ठापूर्वक मानकर कहता हूँ और सुष्ठूक्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ॥2॥
हे सर्वरक्षक ईश्वर सत्याचरण, यश एवं प्रतिष्ठा. विजयलक्ष्मी, शोभा धन-ऐश्वर्य मुझमे स्थित हों, यह मैं सत्यनिष्ठापूर्वक प्रार्थना करता हूँ और सुष्ठूक्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ॥3॥
» जल से अंग स्पर्श करने के मंत्र
इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि यज्ञ जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें ।
इस मंत्र से मुख का स्पर्श करें
ॐ वाङ्म आस्येऽस्तु ॥
इस मंत्र से नासिका के दोनों भाग
ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु ॥
इससे दोनों आँखें
ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु ॥
इससे दोनों कान
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ॥
इससे दोनों भुजाऐं
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु ॥
इससे दोनों जंघाएं
ॐ ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु ॥
इससे सारे शरीर पर जल का मार्जन करें
ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु ॥
मंत्रार्थ – हे रक्षक परमेश्वर! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे मुख में वाक् इन्द्रिय पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्य सहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों नासिका भागों में प्राणशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों आखों में दृष्टिशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों कानों में सुनने की शक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरी भुजाओं में पूर्ण आयुपर्यन्त बल विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरी जंघाओं में बल-पराक्रम सहित सामर्थ्य पूर्ण आयुपर्यन्त विद्यमान रहे।
हे रक्षक परमेश्वर! मेरा शरीर और अंग-प्रत्यंग रोग एवं दोष रहित बने रहें, ये अंग-प्रत्यंग मेरे शरीर के साथ सम्यक् प्रकार संयुक्त हुए सामर्थ्य सहित विद्यमान रहें।
» ईश्वर की स्तुति - प्रार्थना – उपासना के मंत्र
ॐ विश्वानी देव सवितर्दुरितानि परासुव ।
यद भद्रं तन्न आ सुव ॥१॥
मंत्रार्थ – हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूर कर दीजिए, और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं, उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये।
हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत् ।
स दाघार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥२॥
मंत्रार्थ – सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व और सृष्टि रचना के आरम्भ में स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदि पदार्थों को उत्पन्न करके अपने अन्दर धारण कर रखा है, वह परमात्मा सम्यक् रूप से वर्तमान था। वही उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी केवल अकेला एक ही था। उसी परमात्मा ने इस पृथ्वीलोक और द्युलोक आदि को धारण किया हुआ है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: ।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥३॥
मंत्रार्थ – जो परमात्मा आत्मज्ञान का दाता शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक बल का देने वाला है, जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसकी शासन, व्यवस्था, शिक्षा को सभी मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्षसुखदायक है, और जिसको न मानना अर्थात भक्ति न करना मृत्यु आदि कष्ट का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥४॥
मंत्रार्थ – जो प्राणधारी चेतन और अप्राणधारी जड जगत का अपनी अनंत महिमा के कारण एक अकेला ही सर्वोपरी विराजमान राजा हुआ है, जो इस दो पैरों वाले मनुष्य आदि और चार पैरों वाले पशु आदि प्राणियों की रचना करता है और उनका सर्वोपरी स्वामी है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च द्रढा येन स्व: स्तभितं येन नाक: ।
यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥५॥
मंत्रार्थ – जिस परमात्मा ने तेजोमय द्युलोक में स्थित सूर्य आदि को और पृथिवी को धारण कर रखा है, जिसने समस्त सुखों को धारण कर रखा है, जिसने मोक्ष को धारण कर रखा है, जो अंतरिक्ष में स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों आदि का विशेष नियम से निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ता है, हम लोग उस शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तनो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥६॥
मंत्रार्थ – हे सब प्रजाओं के पालक स्वामी परमत्मन! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन और इन अर्थात दूर और पास स्थित समस्त उत्पन्न हुए जड-चेतन पदार्थों को वशीभूत नहीं कर सकता, केवल आप ही इस जगत को वशीभूत रखने में समर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग अपकी योगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ की हमारी
कामना सिद्ध होवे, जिससे की हम उपासक लोग धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें।
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये घामन्नध्यैरयन्त ॥७॥
मंत्रार्थ – वह परमात्मा हमारा भाई और सम्बन्धी के समान सहायक है, सकल जगत का उत्पादक है, वही सब कामों को पूर्ण करने वाला है। वह समस्त लोक-लोकान्तरों को, स्थान-स्थान को जानता है। यह वही परमात्मा है जिसके आश्रय में योगीजन मोक्ष को प्राप्त करते हुए, मोक्षानन्द का सेवन करते हुए तीसरे धाम अर्थात परब्रह्म परमात्मा के आश्रय से प्राप्त मोक्षानन्द में स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हैं। उसी परमात्मा की हम भक्ति करते हैं।
अग्ने नय सुपथा राय अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेँम ॥८॥
मंत्रार्थ – हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक, दिव्यसामर्थयुक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति कराने के लिये धर्मयुक्त, कल्याणकारी मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं। हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिये । इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना सत्कार व नम्रतापूर्वक करते हैं।
» दीपक जलाने का मंत्र
ॐ भूर्भुव: स्व: ॥
मंत्रार्थ – हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सब के उत्पादक, प्राणाधार सब दु:खों को दूर करने वाले सुखस्वरूप एवं सुखदाता हैं। आपकी कृपा से मेरा यह अनुष्ठान सफल होवे। अथवा हे ईश्वर आप सत,चित्त, आनन्दस्वरूप हैं। आपकी कृपा से यह यज्ञीय अग्नि पृथिवीलोक में, अन्तरिक्ष में, द्युलोक में विस्तीर्ण होकर लोकोपकारक सिद्ध होवे।
जल - प्रसेचन के मन्त्र
इस मन्त्र से पूर्व में
ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॥
मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक अखण्ड परमेश्वर! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुमोदन कर अर्थात मेरा यह यज्ञानुष्ठान अखिण्डत रूप से सम्पन्न होता रहे।अथवा, पूर्व दिशा में, जलसिञ्चन के सदृश, मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार प्रसार निबार्ध रूप से कर सकूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये।
इससे पश्चिम में
ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥
मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक यज्ञीय एवं ईश्वरीय संस्कारों के अनुकूल बुद्धि बनाने में समर्थ परमात्मन! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुकूलता से अनुमोदन कर अर्थात यह यज्ञनुष्ठान आप की कृपा से सम्पन्न होता रहे।अथवा, पश्चिम दिशा में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से कर सकूं, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये
अग्नि प्रजोवलन मंत्र
ॐ भूर्भुव: स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा ।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे ॥
ऐसा बोल अग्नि फिर से प्रज्वलित करें
तथा प्रत्येक मंत्र बोलते हुए तीन समिधायें रखें
१)
ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्धयचास्मान् प्रजयापशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन
समेधय स्वाहा । इदमग्नेय जातवेदसे – इदं न मम ॥१॥
२)
ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथम् ।
आस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा ।
इदमग्नये इदन्न मम ॥२॥
३)
सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन अग्नये जातवेदसे स्वाहा।
इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम ॥३॥
देवता ध्यानं
तन्त्वा समिदि्भरङि्गरो घृतेन वर्द्धयामसि ।
बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा॥इदमग्नेऽङिगरसे इदं न मम ॥१॥
घृत का आहुति
ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वद्धर्स्व चेद्ध वधर्य चास्मान् प्रजयापशुभिब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन
समेधय स्वाहा।इदमग्नये जातवेदसे - इदं न मम॥॥
इस मंत्र से ५ बार घृत का आहुति दें
इस प्रकार निम्न मंत्र का प्रयोग करें
ओम आग्नेय नम: स्वाहा
ओम गणेशाय नम: स्वाहा
ओम गौरियाय नम: स्वाहा
ओम नवग्रहाय नम: स्वाहा
ओम दुर्गाय नम: स्वाहा
ओम महाकालिकाय नम: स्वाहा
ओम हनुमते नम: स्वाहा
ओम भैरवाय नम: स्वाहा
ओम कुल देवताय नम: स्वाहा
ओम स्थान देवताय नम: स्वाहा
ओम ब्रह्माय नम: स्वाहा
ओम विष्णुवे नम: स्वाहा
ओम शिवाय नम: स्वाहा
ओम जयंती मंगलाकाली, भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवाधात्री स्वाहा
स्वधा नमस्तुति स्वाहा।
ओम ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च: गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु स्वाहा।
ओम गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवा महेश्वर: गुरु साक्षात् परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नम: स्वाहा।
ओम शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे, सर्व स्थार्ति हरे देवि नारायणी नमस्तुते।
इसके पश्चात सूखे नारियल में लाल वस्त्र या कलावा बाधें।
पान, सुपारी, लौंग, बतासा, पूरी, खीर आदि उसके शीर्ष पर स्थापित करें।
तत्पश्चात उसको हवन कुंड में मध्य में रखें।
अब जो भी हवन सामग्री बची है, उसे इस मंत्र के साथ एक बार में आहुति दें। ओम पूर्णमद: पूर्णमिदम् पुर्णात पूण्य मुदच्यते, पुणस्य पूर्णमादाय पूर्णमेल विसिस्यते स्वाहा।
अब अंत में मां दुर्गा को दक्षिणा दें, अपने सामर्थ्य के अनुरुप रुपए आदि वहां रख दें।
अंत में माँ दुर्गा की आरती और माँ महागौरी की आरती करें।
कोई चाहे तो यहां देवी सह्स्रनाम का हवनादि यथा योग्य पण्डित से करवा सकते हैं
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