"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।" Know the real meaning of this shlok. इस श्लोक का वास्तविक अर्थ जानें। #geeta. #shankarbhashya. #18.66
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।☀️मुमुक्षु जन( मोक्ष की इच्छा रखने वाले व्यक्ति) निश्चित रूप से इस सम्पूर्ण पोस्ट को पढ़ें।☀️
अस्तु
सर्वधर्मान् सर्वे च ते धर्माः च सर्वधर्माः तान्। धर्मशब्देन अत्र अधर्मः अपि गृह्यते नैष्कर्म्यस्य विवक्षितत्वात् 'नाविरतो दुश्चरितात्' (क० उ० १।२।२४) 'त्यज धर्ममधर्मं च' (महा० शान्ति० ३२९। ४० ) इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्यः ।
----समस्त धर्मोको, अर्थात् जितने भी धर्म हैं उन सबको, यहाँ नैष्कर्म्य (कर्माभाव ) का प्रतिपादन करना है इसलिये 'धर्म' शब्दसे अधर्मका भी ग्रहण किया जाता है। 'जो बुरे चरित्रोंसे विरक्त नहीं हुआ धर्म और अधर्म दोनोंको छोड़ इत्यादि श्रुति स्मृतियोंसे भी यही सिद्ध होता है।
सर्वधर्मान् परित्यज्य सन्न्यस्य सर्वकर्माणि इति एतत् । माम् एकं सर्वात्मानं समं सर्वभूतस्थम् ईश्वरम् अच्युतं गर्भजन्मजरामरणविवर्जितम् अहम् एव इति एवम् एकं शरणं व्रज न मत्तः अन्यद् अस्ति इति अवधारय इत्यर्थः।
सब धर्मोंको छोड़कर सर्व कर्मोंका संन्यास करके, मुझ एककी शरणमें आ, अर्थात् मैं जो कि सबका आत्मा, समभावसे सर्व भूतोंमें स्थित, ईश्वर, अच्युत तथा गर्भ, जन्म, जरा और मरणसे रहित हूँ, उस एकके इस प्रकार शरण हो । अभिप्राय यह कि 'मुझ परमेश्वरसे अन्य कुछ है ही नहीं' ऐसा निश्चय कर
अहं त्वा त्वाम् एवं निश्चितबुद्धिं सर्वपापेभ्यः सर्वधर्माधर्मबन्धनरूपेभ्यो मोक्षयिष्यामि स्वात्म- भावप्रकाशीकरणेन । उक्तं च- 'नाशयाम्यात्म भावस्था ज्ञानदीपेन भास्वता' इति अतो मा शुचः शोकं मा कार्षीः इत्यर्थः ।।
तुझ इस प्रकार निश्चयवालेको मैं अपना स्वरूप प्रत्यक्ष कराके समस्त धर्माधर्मबन्धनरूप पापों से मुक्त कर दूंगा। पहले कहा भी है कि मैं हृदयमें स्थित हुआ प्रकाशमय ज्ञान दीपकसे ( अज्ञानजनित अन्धकारका) नाश करता हूँ इसलिये तू शोक न कर अर्थात् चिन्ता मत कर ॥
अथ श्लोकस्य मीमांसा प्रारम्भ:
(अब इस श्लोक का वास्तविक अर्थ समझते है एवं मनन करते हैं )
(प्रश्न उत्तर के साथ)
यह विचार करना चाहिये कि इस गीताशास्त्रमें निश्चय किया हुआ, परम कल्याण (मोक्ष) - का साधन ज्ञान है या कर्म, अथवा दोनों ?
कुतः सन्देहः ?
प्रश्न (पू०) - यह सन्देह क्यों होता है?
'ततो मां तत्त्वत्तो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्' इत्यादीनि वाक्यानि केवलाद् ज्ञानाद् निःश्रेयसप्राप्तिं दर्शयन्ति 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' 'कुरु कर्मैव' इत्येवमादीनि कर्मणाम् अवश्यकर्तव्यतां दर्शयन्ति।
उत्तर (उ°) जिसको जानकर अमरता प्राप्त करता लेता है' 'तदनन्तर मुझे तत्त्वसे जानकर मुझमें ही प्रविष्ट हो जाता है' इत्यादि वाक्य तो केवल ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति दिखला रहे हैं; तथा 'तेरा कर्ममें ही अधिकार है 'तू कर्म ही कर' इत्यादि वाक्य कमकी अवश्य कर्तव्यता दिखला रहे हैं।
इस प्रकार ज्ञान और कर्म दोनोंकी कर्तव्यताका उपदेश होनेसे ऐसा संशय भी हो सकता है कि सम्भवतः दोनों समुच्चित ( मिलकर) ही मोक्षके साधन होंगे।
किं पुनरत्र मीमांसाफलम् ।
पू० परंतु इस मीमांसाका फल क्या होगा ?
उ०- यही कि इन तीनोंमेंसे किसी एकको ही परम कल्याणका साधन निश्चय करना। अतः इसकी विस्तारपूर्वक मीमांसा कर लेनी चाहिये।
आत्मज्ञानस्य तु केवलस्य निःश्रेयस
केवल आत्मज्ञान ही परम कल्याण (मोक्ष) - का हेतु (साधन) है; क्योंकि भेद प्रतीतिका निवर्तक होनेके कारण, कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति ही उसकी अवधि है।
आत्मामें क्रिया, कारक और फलविषयक भेद बुद्धि अविद्याके कारण सदासे प्रवृत्त हो रही है। 'कर्म मेरे हैं, मैं उनका कर्ता हूँ, मैं अमुक फलके लिये यह कर्म करता हूँ यह अविद्या अनादिकालसे प्रवृत्त हो रही है।
"यह केवल (एकमात्र) अकर्ता, क्रियारहित और फलसे रहित आत्मा मैं हूँ, मुझसे भिन्न और कोई भी नहीं है' ऐसा आत्मविषयक ज्ञान इस अविद्याका नाशक है क्योंकि यह उत्पन्न होते ही, कर्म-प्रवृत्तिकी हेतुरूप भेदबुद्धिका नाश करनेवाला है।
तु शब्दः पक्षद्वयव्यावृत्त्यर्थो न केवलेभ्यः
उपर्युक्त वाक्यमें 'तु' शब्द दोनों पक्षोंकी निवृत्तिके लिये हैं अर्थात् मोक्ष न तो केवल कर्मसे मिलता है और न ज्ञान - कर्मके समुच्चयसे ही इस प्रकार 'तु' शब्द दोनों पक्षोंका खण्डन करता है।
मोक्ष अकार्य अर्थात् स्वतः सिद्ध है, इसलिये कर्मोंको उसका साधन मानना नहीं बन सकता; क्योंकि कोई भी नित्य (स्वतः सिद्ध) वस्तु कर्म या ज्ञानसे उत्पन्न नहीं की जाती।
केवलं ज्ञानम् अपि अनर्थकं तर्हि ?
पू०- तब तो केवल ज्ञान भी व्यर्थ ही है ?
उ०- यह बात नहीं है क्योंकि अविद्याका नाशक होनेके कारण उसकी मोक्षप्राप्तिरूप फल पर्यन्तता प्रत्यक्ष है। अर्थात् जैसे दीपकके प्रकाश का, रज्जु आदि वस्तुओंमें होनेवाली सर्पादिकी भ्रान्तिको और अन्धकारको नष्ट कर देना ही फल है और जैसे उस प्रकाशका फल सर्पविषयक विकल्पको हटाकर, केवल रज्जुको प्रत्यक्ष कराके समाप्त हो जाता है, वैसे ही अविद्यारूप अन्धकारके नाशक आत्मज्ञानका भी फल, केवल आत्मस्वरूपको प्रत्यक्ष कराके ही समाप्त होता देखा गया है।
कैवल्यावसान हि प्रकाशफलं तथा ज्ञानम् ।
जिनका फल प्रत्यक्ष हैं, ऐसी जो लकड़ीको चीरना अथवा अरणीमन्थनद्वारा अग्रि उत्पन्न करना आदि क्रियाएँ हैं, उनमें लगे हुए कर्ता आदि कारकोंकी, जैसे अलग-अलग टुकड़े हो जाना, अथवा अग्नि प्रज्वलित हो जाना आदि फलसे अतिरिक्त किसी अन्य फल देनेवाले कर्ममें प्रवृत्ति नहीं हो सकती, वैसे ही जिसका फल प्रत्यक्ष है, ऐसी ज्ञाननिष्ठारूप क्रियामें लगे हुए जाता आदि कारकोंकी भी आत्मकैवल्यरूप फलसे अतिरिक्त फलवाले किसी अन्य कर्ममें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अतः ज्ञाननिष्ठा कर्मसहित नहीं हो सकती।
यदि कहो कि भोजन और अग्रिहोत्र आदि क्रियाओंके समान (इसमें भी समुच्चय) हो सकता है तो ऐसा कहना ठीक नहीं; क्योंकि जिसका फल कैवल्य (मोक्ष) है, उस ज्ञानके प्राप्त होनेके पश्चात् कर्मफलकी इच्छा नहीं रह सकती, जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जानेपर कूप तालाब आदिकी जलके लिये चाह नहीं रहती, उसी प्रकार मोक्ष जिसका फल है, ऐसे ज्ञानकी प्राप्ति होनेके बाद क्षणिक सुखरूप फलान्तरकी या उसकी साधनभूत क्रियाकी इच्छुकता नहीं रह सकती।
क्योंकि जो मनुष्य राज्य प्राप्त करा देनेवाले कर्ममें लगा हुआ है उसकी प्रवृत्ति, क्षेत्र प्राप्ति ही जिसका फल है ऐसे कर्ममें नहीं होती और उस कर्मके फलकी इच्छा भी नहीं होती।
सुतरां यह सिद्ध हुआ कि परम कल्याणका साधन न तो कर्म है और न ज्ञान- कर्मका समुच्चय ही है तथा कैवल्य (मोक्ष) ही जिसका फल है, ऐसे ज्ञानको कर्मोकी सहायता भी अपेक्षित नहीं है; क्योंकि ज्ञान अविद्याका नाशक है; इसलिये उसका कर्मोंसे विरोध है।
न हि तमः तमसो निवर्तकम् अतः केवलम् |
यह प्रसिद्ध ही है कि अन्धकारका नाशक अन्धकार नहीं हो सकता। इसलिये केवल ज्ञान ही परम कल्याणका साधन है।
पू० यह सिद्धान्त ठीक नहीं; क्योंकि नित्यकर्मोंके न करनेसे प्रत्यवाय होता है और मोक्ष नित्य है। भाव यह कि पहले जो यह कहा गया कि केवल ज्ञानसे ही मोक्ष मिलता है, ठीक नहीं; क्योंकि वेद-शास्त्रमें कहे हुए नित्यकर्मोंके न करनेसे नरकादिकी प्राप्तिरूप प्रत्यवाय होगा।
यदि कहो कि ऐसा होनेसे तो कर्मोंसे छुटकारा ही न होगा, अतः मोक्षके अभावका प्रसङ्ग आ जायगा, तो ऐसा दोष नहीं है; क्योंकि मोक्ष नित्यसिद्ध है। नित्यकर्मोंका आचरण करनेसे तो प्रत्यवाय न होगा, निषिद्ध कर्मोंका सर्वथा त्याग कर देनेसे अनिष्ट (बुरे) शरीरोंकी प्राप्ति न होगी, काम्यकमका त्याग कर देने के कारण इष्ट (अच्छे ) शरीरोंकी प्राप्ति न होगी तथा वर्तमान शरीरको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका, फलके उपभोगसे क्षय हो जानेपर इस शरीरका नाश हो जानेके पश्चात्, दूसरे शरीरकी उत्पत्तिका कोई कारण नहीं रहनेसे तथा शरीरसम्बन्धी आसक्ति आदिके न करनेसे, जो स्वरूपमें स्थित हो जाना है वही कैवल्य है, अतः बिना प्रयत्नके ही कैवल्य सिद्ध हो जायगा।
उ०- किंतु भूतपूर्व अनेक जन्मोंके किये हुए जो स्वर्ग-नरक आदिको प्राप्तिरूप फल देनेवाले अनेक अनारब्धफल-सञ्चित कर्म हैं, उनके फलका उपभोग न होनेके कारण उनका तो नाश नहीं होगा- ऐसा कहें तो ?
पू० यह बात नहीं है; क्योंकि नित्यकर्मके अनुष्ठानमें होनेवाले परिश्रमरूप दुःखभोगको, उस कमक फलका उपभोग माना जा सकता है। अथवा प्रायश्चित्तकी भाँति नित्यकर्म भी पूर्वकृत पापका नाश करनेवाले मान लिये जायेंगे तथा प्रारब्धकर्मका फलभोगसे नाश हो जायगा, फिर नये कमका आरम्भ न करनेसे 'कैवल्य' बिना यज्ञके सिद्ध हो जायगा।
उ०- यह सिद्धान्त ठीक नहीं है क्योंकि उस (परमात्मा) को जानकर ही मनुष्य मृत्युसे तरता है; मोक्ष प्राप्तिके लिये दूसरा मार्ग नहीं है
'तमेव विदित्वातिमृत्युमेति .....'
(श्वेताश्वतरोपनिषत् ३ । ८)
इस प्रकार मोक्षके लिये विद्याके अतिरिक्त अन्य मार्गका अभाव बतलानेवाली श्रुति है तथा जैसे चमड़ेकी भाँति आकाशको लपेटना असम्भव है, उसी प्रकार अज्ञानीकी मुक्ति असम्भव बतलानेवाली भी श्रुति है, एवं पुराण और स्मृतियोंमें भी यही कहा गया है कि ज्ञानसे ही कैवल्यकी प्राप्ति होती है।
इसके सिवा (उस सिद्धान्तमें) जिनका फल मिलना आरम्भ नहीं हुआ है ऐसे पूर्वकृत पुण्यों के नाशकी उत्पत्ति न होनेसे भी यह पक्ष ठीक नहीं है। अर्थात् जिस प्रकार पूर्वकृत सञ्चित पुण्योंका होना सम्भव है, उसी प्रकार सञ्चित पापोंका होना भी सम्भव है ही अतः देहान्तरको उत्पन्न किये बिना उनका क्षय सम्भव न होनेसे ( इस पक्षके अनुसार) मोक्ष सिद्ध नहीं हो सकेगा।
इसके सिवा, पुण्य पापके कारणरूप राग, द्वेष और मोह आदि दोषोंका, बिना आत्मज्ञानके मूलोच्छेद होना सम्भव न होनेके कारण भी पुण्य-पापका उच्छेद होना सम्भव नहीं।
तथा श्रुतिमें नित्यकर्मोका पुण्यलोककी प्राप्तिरूप फल बतलाया जानेके कारण और अपने कर्मोंमें स्थित वर्णाश्रमावलम्बी'
'वर्णा आश्रमाश्च स्वकर्मनिष्ठा'
(आ० स्मृ० २।२।२।३ )
इत्यादि स्मृतिवाक्योंद्वारा भी यही बात कही जानेके कारण भी कर्मोका क्षय (मानना) सिद्ध नहीं होता।
तथा जो यह कहते हैं कि नित्यकर्म दुःखरूप होनेके कारण पूर्वकृत पापका फल ही है, उनका अपने स्वरूपसे अतिरिक्त और कोई फल नहीं है; क्योंकि श्रुतिमें उनका कोई फल नहीं बतलाया गया तथा उनका 'विधान जीवननिर्वाह आदिके लिये किया गया है।' उनका कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो कर्म फल देनेके लिये प्रवृत्त नहीं हुए, उनका फल होना असम्भव है और नित्यकर्मक अनुष्ठानका परिश्रम, अन्य कर्मका फलविशेष है यह बात भी सिद्ध नहीं की जा सकेगी।
तुमने जो यह कहा कि पूर्वजन्मकृत पापकमका फल, नित्यकर्मोके अनुष्ठानमें होनेवाले परिश्रमरूप दुःखके द्वारा भोगा जाता है, सो ठीक नहीं; क्योंकि मरनेके समय जो कर्म भविष्य में फल देनेके लिये अङ्कुरित नहीं हुए उनका फल दूसरे कमद्वारा उत्पन्न हुए शरीरमें भोगा जाता है, यह कहना युक्तियुक्त नहीं है।
अन्यथा स्वर्गफलोपभोगाय अग्रिहोत्रादि कर्मारब्धे जन्मनि नरककर्मफलोपभोगा नुपपत्तिः न स्यात् ।
यदि ऐसा न हो तो स्वर्गरूप फलका भोग करनेके लिये अग्रिहोत्रादि कर्मोंसे उत्पन्न हुए जन्ममें नरकके कारणभूत कर्मोंका फल भोगा जाना भी युक्तिविरुद्ध नहीं होगा।
इसके सिवा यह (नित्यकर्मके अनुष्ठानमें होने वाला परिश्रमरूप दुःख) पापोंकी फलरूप दुःख विशेष सिद्ध न हो सकनेके कारण भी तुम्हारा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रकारके दुःख साधनरूप फल देनेवाले, अनेक (सचित) पापोंके होनेकी सम्भावना होते हुए भी नित्यकर्म अनुष्ठान परिश्रममात्रको ही उन सबका फल मान लेनेपर शीतोष्णादि द्वन्द्वोंकी अथवा रोगादिकी पीड़ासे होने वाले दुःखोंको पापका फल नहीं माना जा सकेगा; तथा यह हो भी कैसे सकता है कि नित्यकर्मके अनुष्ठानका परिश्रम ही पूर्वकृत पापोंका फल है, सिरपर पत्थर आदि ढोनेका दुःख उसका फल नहीं ?
इसके सिवा, नित्यकर्मो के अनुष्ठानसे होनेवाला परिश्रमरूप दुःख पूर्वकृत पापोंका फल है, यह कहना प्रकरणविरुद्ध भी है।
पू० – कैसे ?
उ ०- जो पूर्वकृत पाप, फल देनेके लिये अङ्कुरित नहीं हुए हैं, उसका क्षय नहीं हो सकता ऐसा प्रकरण है, उसमें तुमने फल देनेके लिये प्रस्तुत हुए पूर्वकृत पापोंका हो फल, नित्यकर्मो के अनुष्ठानसे होनेवाला परिश्रमरूप दुःख बतलाया है, जो कर्म फल देनेके लिये प्रस्तुत नहीं हुए हैं उनका फल नहीं बतलाया।
अप्रसूतफलस्य पूर्वकृतदुरितस्य क्षयो न उपपद्यते इति प्रकृतं तत्र प्रसूतफलस्य कर्मणः फलं नित्यकर्मानुष्ठानायासदुःखम् आह भवान् न अप्रसूतफलस्य इति ।।
यदि तुम यह मानते हो कि पूर्वकृत सभी पाप कर्म फल देनेके लिये प्रवृत्त हो चुके हैं, तो फिर नित्यकर्मक अनुष्ठानका परिश्रमरूप दुःख ही उनका फल है, यह विशेषण देना अयुक्त ठहरता है और नित्यकर्मविधायक शास्त्रको भी व्यर्थ माननेका प्रसङ्ग आ जाता है क्योंकि फल देनेके लिये अङ्कुरित हुए पापोंका तो उपभोगसे ही क्षय जो जायगा (उनके लिये नित्यकर्मोकी क्या आवश्यकता है)।
किं च श्रुतस्य नित्यस्य दुःखं कर्मणः चेत् फलम्, नित्यकर्मानुष्ठानायासाद् एव तद् दृश्यते व्यायामादिवत् तद् अन्यस्य इति कल्पना नुपपत्तिः ।
इसके सिवा (वास्तवमें) वेद - विहित नित्यकर्मोंसे होनेवाला परिश्रमरूप दुःख यदि कर्मका फल हो तो फलम्, नित्यकर्मानुष्ठानायासाद् एव तद् दृश्यते वह उन (विहित नित्यकर्मों) का ही फल होना चाहिये; क्योंकि वह व्यायाम आदिकी भाँति उनके ही अनुष्ठानसे होता हुआ दिखलायी देता है, अतः यह कल्पना करना कि वह किसी अन्य कर्मका फल है' युक्तियुक्त नहीं है।
नित्यकर्मोका विधान जीवनादिके लिये किया गया है इसलिये भी नित्यकर्मोंको प्रायश्चित्तकी भाँति पूर्वकृत पापका फल मानना युक्तियुक्त नहीं है। जिस पापकर्मके लिये जो प्रायश्चित्त विहित है, वह उस पापका फल नहीं है तथापि यदि ऐसा मानें कि प्रायश्चित्तरूप दुःख (जिसके लिये प्रायश्चित्त किया जाय ) उस पापरूप निमित्तका ही फल होता है, तो जीवनादिके लिये किये जानेवाले नित्यकर्मोका परिश्रमरूप दुःख भी जीवन आदि हेतुओंका ही फल सिद्ध होगा; क्योंकि नित्य और प्रायश्चित्त ये दोनों ही किसी-न-किसी निमित्तसे किये जानेवाले हैं, इनमें कोई भेद नहीं है।
इसके सिवा दूसरा दोष यह भी है कि नित्यकर्मके परिश्रमकी और काम्य अग्निहोत्रादि कर्म के परिश्रमकी समानता होनेके कारण, नित्यकर्मका परिश्रम ही पूर्वकृत पापका फल है, काम्य-कर्मानुष्ठानका परिश्रमरूप दुःख उसका फल नहीं है, ऐसा माननेके लिये कोई विशेष कारण नहीं है, अतः वह काम्यकर्मका परिश्रमरूप दुःख भी पूर्वकृत पापका ही फल माना जायगा।
तथा च सति नित्यानां फलाश्रवणात् तद्विधानान्यथानुपपत्तेः च नित्यानुष्ठानायास दुःखं पूर्वकृतदुरितफलम् इति अर्थापत्तिकल्पना अनुपपन्ना ।
ऐसा होनेसे 'नित्यकर्मोंका फल नहीं बतलाया गया है और उनके अनुष्ठानका विधान किया गया है, उस विधानकी अन्य प्रकारसे उपपत्ति न होनेके कारण, नित्यकर्मक अनुष्ठानसे होनेवाला दुःख, पूर्वकृत पापका ही फल है, इस प्रकारकी जो अर्थापत्तिकी कल्पना की गयी थी, उसका खण्डन हो गया।
इस तरह प्रकारान्तरसे नित्यकर्मोंके विधानकी अनुपपत्ति होनेसे और नित्यकर्मोंका अनुष्ठानसम्बन्धी परिश्रमरूप दुःखके सिवा दूसरा फल होता है, ऐसा अनुमान होनेसे भी ( यह पक्ष खण्डित हो जाता है)। इसके सिवा ऐसा माननेमें विरोध होनेके कारण भी (यह पक्ष कट जाता है)। नित्यकर्मोंका अनुष्ठान करते हुए दूसरे कर्मोंका फल भोगा जाता है, ऐसा मान लेनेसे यह कहना होता है कि वह उपभोग ही नित्यकर्मका फल है और साथ ही यह भी प्रतिपादन करते जाते हो कि नित्यकर्मका फल नहीं है अतः यह कथन परस्पर विरुद्ध होता है।
इसके अतिरिक्त, (तुम्हारे मतानुसार) काम्य अग्निहोत्रादिका अनुष्ठान करते हुए तन्त्रसे नित्य नित्यम् अपि अग्निहोत्रादि तन्त्रेण एव अनुष्ठितं अग्रिहोत्रादि भी उन्होंके साथ अनुष्ठित हो जाते हैं। अतः उस परिश्रमरूप दुःखभोगसे ही काम्य अग्रिहोत्रादिका फल भी क्षीण हो जायगा; क्योंकि वह उसके अधीन है।
अथ काम्याग्निहोत्रादिफलम् अन्यद् एव स्वर्गादि तदनुष्ठानायासदुःखम् अपि भिन्न प्रसज्येत। न च तद् अस्ति दृष्टविरोधात् । न हि काम्यानुष्ठानायासदुःखात् केवलनित्यानुष्ठाना- यासदुःखं विद्यते ।
यदि ऐसा मानें कि काम्य- अग्रिहोत्रादिका स्वर्गादि प्राप्तिरूप दूसरा ही फल होता है तो उनके अनुष्ठानमें होनेवाले परिश्रमरूप दुःखको भी नित्यकर्म के परिश्रम से भिन्न मानना आवश्यक होगा। परंतु प्रत्यक्ष प्रमाणसे विरुद्ध होनेके कारण यह नहीं हो सकता। क्योंकि काम्यकर्मक अनुष्ठानसे होनेवाले परिश्रमरूप दुःखसे, केवल नित्यकर्म अनुष्ठानमें होनेवाले परिश्रमरूप दुःखका भेद नहीं है।
इसके सिवा दूसरी बात यह भी है कि जो कर्म न विहित हो और न प्रतिषिद्ध हो, वही तत्काल फल देनेवाला होता है, शास्त्रविहित या प्रतिषिद्ध कर्म तत्काल फल देनेवाला नहीं होता। यदि ऐसा होता तो स्वर्ग आदि लोकोंका प्रतिपादन करनेमें और अदृष्ट फलोंके बतलाने में शास्त्रकी प्रवृत्ति नहीं होती।
अग्निहोत्रादीनाम् एव कर्मस्वरूपाविशेषे अनुष्ठानायासदुःखमात्रेण उपक्षयः ।
कर्मत्वमें किसी प्रकारका भेद न होनेपर तथा अंग और इतिकर्तव्यता आदिकी कोई विशेषता न होनेपर भी केवल नित्य-अग्रिहोत्रादिका फल तो अनुष्ठान जनित परिश्रमरूप दुःखके उपभोगसे क्षय हो जाता है और फलेच्छुकतामात्रकी अधिकतासे काम्य अग्रिहोत्रादिका स्वर्गादि महाफल होता है, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती।
सुतरां नित्यकर्मोंका अदृष्ट फल नहीं होता यह बात कभी भी सिद्ध नहीं हो सकती। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि अविद्यापूर्वक होनेवाले सभी शुभाशुभ कमका अशेषतः नाश करनेवाला हेतु विद्या (ज्ञान) ही है, नित्यकर्मका अनुष्ठान नहीं।
क्योंकि सभी कर्म अविद्या और कामनामूलक हैं। ऐसा ही हमने सिद्ध किया है कि अज्ञानीका विषय कर्म है और ज्ञानीका विषय सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक ज्ञाननिष्ठा है।
"उभौ तौ न विजानीत:' 'वेदाविनाशिनं नित्यम्' 'ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्' 'अज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्' 'तत्त्ववित्तु' 'गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते' 'सर्वकर्माणि मनसा सन्यस्यास्ते' 'नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्' अर्थाद् अज्ञः करोमि इति।
'उभौ तौ न विजानीतः वेदाविनाशिनं नित्यम्' 'ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्' अज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्' 'तत्त्ववित्तु' 'गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते' 'सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते' 'नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्' इत्यादि वाक्योंके अर्थसे यही सिद्ध होता है कि अज्ञानी ही 'मैं कर्म करता हूँ' ऐसा मानता है (ज्ञानी नहीं)।
आरुरुक्षुके लिये कर्म कर्तव्य बतलाये हैं और आरूढके लिये अर्थात् योगस्थ पुरुषके लिये उपशम कर्तव्य बतलाया है तथा (ऐसा भी कहा है कि ) 'तीनों प्रकारके अज्ञानी भक्त भी उदार हैं, पर ज्ञानी तो मेरा स्वरूप ही है, ऐसा मैं मानता हूँ।'
ज्ञानी तु आत्मा एव मे मतम् ।
कर्म करनेवाले सकाम अज्ञानी लोग आवागमन को प्राप्त होते हैं और अनन्य भक्त नित्ययुक्त होकर चिन्तन करते हुए आत्मस्वरूप, आकाशके सदृश, मुझ निष्पाप परमात्माकी उपासना किया करते हैं।
'उनको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि कर्म करनेवाले अज्ञानी भगवान्को प्राप्त नहीं होते।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ।
भगवदर्थ कर्म करनेवाले जो युक्ततम होनेपर भी कम होनेके नाते अज्ञानी हैं, वे चित्तसमाधानसे लेकर कर्मफलत्यागपर्यन्त उत्तरोत्तर हीन बतलाये हुए साधनोंसे युक्त होते हैं।
तथा जो अनिर्देश्य अक्षरके उपासक हैं वे
'अद्वेष्टा सर्वभूतानाम् '
आदिसे लेकर बारहवें अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त बतलाये हुए साधनोंसे सम्पन्न और तेरहवें अध्यायसे लेकर तीन अध्यायोंमें बतलाये हुए ज्ञान-साधनोंसे भी युक्त होते हैं।
अधिष्ठानादिपञ्चहेतुकसर्वकर्मसन्यासिनाम् आत्मैकत्वाकर्तृत्वज्ञानवतां परस्यां ज्ञाननिष्ठायां वर्तमानानां भगवत्तत्त्वविदाम् अनिष्टादिकर्म फलत्रयं परमहंसपरिव्राजकानाम् एवं लब्धभग वत्स्वरूपात्मैकत्वशरणानां न भवति भवति एव अन्येषाम् अज्ञानां कर्मिणाम् असन्यासिनाम् इति एष गीताशास्त्रोक्तस्य कर्तव्याकर्तव्यार्थस्य विभागः।
अधिष्ठानादि पाँच जिसके कारण हैं, ऐसे समस्त कर्मोंका जो संन्यास करनेवाले हैं, जो आत्माके एकत्व और अकर्तृत्वको जाननेवाले हैं, जो ज्ञानकी परानिष्ठामें स्थित हो गये हैं, जो भगवत्स्वरूप और आत्माके एकत्वज्ञानकी शरण हो चुके हैं, ऐसे भगवानके तत्त्वको जाननेवाले परमहंस परिव्राजकोंको इष्ट-अनिष्ट और मिश्र ऐसा त्रिविध कर्मफल नहीं मिलता। इनसे अन्य जो संन्यास न करनेवाले कर्म परायण अज्ञानी हैं, उनको कर्मका फल अवश्य भोगना पड़ता है; यही गीताशास्त्रमें कहे हुए कर्तव्य और अकर्तव्यका विभाग है।
पू० - सभी कर्मोंको अविद्यामूलक मानना युक्ति सङ्गत नहीं है।
उ०- नहीं, ब्रह्महत्यादि निषिद्ध कर्मोंकी भाँति (सभी कर्म अविद्यामूलक हैं) नित्यकर्म यद्यपि शास्त्रप्रतिपादित हैं तो भी वे अविद्यायुक्त पुरुषके ही कर्म हैं।
न ब्रह्महत्यादिवत् । यद्यपि शास्त्रावगतं नित्यं कर्म तथापि अविद्यावत एव भवति।
जैसे प्रतिषेध शास्त्रसे कहे हुए भी अनर्थके कारणरूप ब्रह्महत्यादि निषिद्ध कर्म अविद्या और कामनादि दोषोंसे युक्त पुरुषके द्वारा ही हो सकते हैं;क्योंकि दूसरी तरह उनमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उसी प्रकार नित्य नैमित्तिक और काम्य आदि कर्म भी अविद्या और कामनासे युक्त मनुष्यसे ही हो सकते हैं।
पू० परंतु आत्माको शरीरसे पृथक् समझे बिना नित्य नैमित्तिक आदि कर्मोंमें प्रवृत्तिका होना असम्भव है।
उ०- यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा जिसका कर्ता नहीं है ऐसे चलनरूप कर्ममें (अज्ञानियों की) 'मैं करता हूँ' ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है।
यदि कहो कि शरीर आदिमें जो अहंभाव हैं वह गौण है, मिथ्या नहीं है तो ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा माननेसे उनके कार्यमें भी गौणता सिद्ध होगी।
पू० - जैसे हे पुत्र ! तू मेरा आत्मा ही है' इस श्रुतिवाक्यके अनुसार, अपने पुत्रमें 'अहंभाव' होता है तथा संसारमें भी जैसे 'यह गौ मेरा प्राण ही है' इस प्रकार प्रिय वस्तुमें ' अहंभाव होता देखा जाता हैं, उसी प्रकार अपने शरीरादि संघातमें भी अहंभाव गौण ही है। यह प्रतीति मिथ्या नहीं है। मिथ्या प्रतीति तो वह है कि जो स्थाणु और पुरुषके भेदको न जानकर स्थाणुमें पुरुषकी प्रतीति होती है।
'आत्मा वै पुत्र नामासि' ( तै० सं० २।११)
उ०- ( यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि) गौण प्रयोग लुप्तोपमा शब्दद्वारा अधिकरणकी स्तुति करनेके लिये होता है, इसलिये गौण प्रतीतिसे मुख्यके कार्यकी सिद्धि नहीं होती।
जैसे कोई कहे कि देवदत्त सिंह है या बालक अग्नि है, तो उसका यह कहना, 'देवदत्त सिंहके सदृश क्रूर और बालक अग्रिके समान पिङ्गल (गौर) वर्ण' इस प्रकारकी समानताके कारण देवदत्त और बालकरूप अधिष्ठानकी स्तुतिके लिये ही है। क्योंकि गौण शब्द या गौण ज्ञानसे कोई सिंहका कार्य ( किसीको भक्षण कर जाना) या अग्रिका कार्य ( किसीको जला डालना) सिद्ध नहीं किया जा सकता। परंतु मिथ्या प्रत्ययका कार्य (जन्म-मरणरूप) अनर्थ, (मनुष्य) अनुभव कर रहा है।
इसके सिवा गौण प्रतीतिके विषयको मनुष्य ऐसा जानता भी है कि वास्तवमें यह देवदत्त सिंह नहीं है और यह बालक अग्नि नहीं है।
(यदि उपर्युक्त प्रकारसे शरीरादि संघातमें भी आत्मभाव गौण होता तो) शरीरादिके संघातरूप गौण आत्माद्वारा किये हुए कर्म, अहंभावके मुख्य विषय आत्माके किये हुए नहीं माने जाते। क्योंकि गौण सिंह (देवदत्त) और गौण अग्नि (बालक) द्वारा किये हुए कर्म मुख्य सिंह और अग्रिके नहीं माने जाते। तथा उस क्रूरता और पिङ्गलताद्वारा कोई मुख्य सिंह और मुख्य अग्रिका कार्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे केवल स्तुतिके लिये कहे हुए होनेसे हीनशक्ति हैं।
जिनकी स्तुति की जाती है वे ( देवदत्त और बालक) भी यह जानते हैं कि 'मैं सिंह नहीं हूँ', 'मैं अहम् अग्निः इति, न सिंहस्य कर्म मम अग्नेः अग्नि नहीं हूँ' तथा 'सिंहका कर्म मेरा नहीं है', 'अनिका कर्म मेरा नहीं है।' इसी प्रकार (यदि शरीर आदिमें गौण भावना होती तो) संघातके कर्म मुझ मुख्य आत्माक नहीं हैं ऐसी ही प्रतीति होनी चाहिये थी, ऐसी नहीं कि मैं कर्ता हूँ', 'मेरे कर्म हैं' (सुतरां यह सिद्ध हुआ कि शरीरमें आत्मभाव गौण नहीं, मिथ्या है)।
यत् च आहुः आत्मीयैः स्मृतीच्छाप्रयत्नैः कर्महेतुभिः आत्मा करोति इति । न तेषां मिथ्याप्रत्ययपूर्वकत्वात् । मिथ्याप्रत्ययनिमित्तेष्टानिष्टानुभूतक्रियाफलजनितसंस्कार पूर्वका हि स्मृतीच्छाप्रयत्नादयः ।
जो ऐसा कहते हैं कि अपने स्मृति इच्छा और प्रयत्न इन कर्महेतुओंके द्वारा आत्मा कर्म किया करता हैं, उनका कथन ठीक नहीं; क्योंकि ये सब मिथ्या प्रतीतिपूर्वक ही होनेवाले हैं। अर्थात् स्मृति, इच्छा और प्रयत्न आदि सब मिथ्या प्रतीतिसे होनेवाले, इष्ट अनिष्टरूप अनुभूत कर्मफलजनित संस्कारों को लेकर ही होते हैं।
जिस प्रकार इस वर्तमान जन्ममें धर्म, अधर्म और उनके फलोंका अनुभव (सुख-दुःख) शरीरादि संघातमें आत्मबुद्धि और राग-द्वेषादिद्वारा किये हुए होते हैं, वैसे तथा अतीते अतीततरे अपि जन्मनि इति हो भूतपूर्व जन्ममें और उससे पहलेके जन्मोंमें भी थे।
इस न्यायसे यह अनुमान करना चाहिये कि यह बीता हुआ और आगे होनेवाला (जन्म-मरणरूप) संसार अनादि एवं अविद्याकर्तृक ही है।
इससे यह सिद्ध होता है कि ज्ञाननिष्ठामें सर्व कर्मोंके संन्याससे संसारकी आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है; क्योंकि देहाभिमान अविद्यारूप है, अतः उसकी निवृत्ति हो जानेपर शरीरान्तरको प्राप्ति न होनेके कारण (जन्म-मरणरूप) संसारकी प्राप्ति नहीं हो सकती।
शरीरादि संघातमें जो आत्माभिमान हैं वह अविद्यारूप है क्योंकि संसारमें भी मैं गौ आदिसे अन्य हूँ और गौ आदि वस्तुएँ मुझसे अन्य हैं ऐसा जाननेवाला कोई भी मनुष्य उनमें ऐसी बुद्धि नहीं करता कि 'यह मैं हूँ।'
अजानन् तु स्थाणौ पुरुषविज्ञानवद् अविवेकतो देहादिसङ्घाते कुर्याद् अहम् इति प्रत्ययं न विवेकतो जानन् ।
न जाननेवाला ही स्थाणुमें पुरुषकी भ्रान्तिके समान अविवेकके कारण, शरीरादि संघातमें मैं हूँ ऐसा आत्मभाव कर सकता है; पर विवेकपूर्वक जाननेवाला नहीं कर सकता।
तथा पुत्रमें जो 'हे पुत्र! तू मेरा आत्मा ही है' ऐसी आत्मबुद्धि है, वह जन्य जनक सम्बन्धके कारण होनेवाली गौण बुद्धि है, उस गौण आत्मा (पुत्र) से भोजन आदिकी भाँति कोई मुख्य कार्य नहीं किया जा सकता। जैसे कि गौण सिंह और गौण अग्निरूप देवदत्त और बालकद्वारा, मुख्य सिंह और मुख्य अग्रिका कार्य नहीं किया जा सकता ।
पू० स्वर्गादि अदृष्ट पदार्थोंके लिये कर्मोका विधान करनेवाली श्रुतिका प्रमाणत्व होनेसे, यह सिद्ध होता है कि शरीर इन्द्रिय आदि गौण आत्माओंके द्वारा मुख्य आत्माके कार्य किये जाते हैं।
उ°- ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि उनका आत्मत्व अविद्याकर्तृक है। अर्थात् शरीर इन्द्रिय आदि गौण आत्मा नहीं हैं (किंतु मिथ्या हैं)।
पू० तो फिर इनमें आत्मभाव) कैसे होता है ?
उ० मिथ्या प्रतीतिसे ही सङ्गरहित आत्माकी सङ्गति मानकर, इनसे आत्मभाव किया जाता है; क्योंकि उस मिथ्याप्रतीतिके रहते हुए ही उनमें आत्मभावकी सत्ता है, उसके अभावसे आत्मभावना का भी अभाव हो जाता है।
अभिप्राय यह कि मूर्ख अज्ञानियोंका ही अज्ञान कालमें 'मैं बड़ा हूँ, मैं गौर हूँ' इस प्रकार शरीर इन्द्रिय आदिके संघातमें आत्माभिमान देखा जाता है परंतु 'मैं शरीरादि संघातसे अलग हूँ ऐसा समझनेवाले विवेकशीलोंकी, उस समय शरीरादि संघातमें अहंबुद्धि नहीं होती ।
सुतरां, मिथ्याप्रतीतिके अभाव से देहात्मबुद्धिका अभाव हो जानेके कारण, यह सिद्ध होता है कि शरीरादिमें आत्मबुद्धि अविद्याकृत ही है, गौण नहीं।
पृथग्गृह्यमाणविशेषसामान्ययोः हि सिंह- देवदत्तयोः अग्निमाणवकयोः वा गौणः प्रत्ययः शब्दप्रयोगो वा स्याद् न अगृह्यमाणसामान्य विशेषयोः
जिनकी समानता और विशेषता अलग-अलग समझ ली गयी है, ऐसे सिंह और देवदत्तमें या अग्नि और बालक आदिमें हो गौण प्रतीति या गौण शब्दका प्रयोग हो सकता है जिनकी समानता और विशेषता नहीं समझी गयी उनमें नहीं।
प्रत्यक्षादि उसकी प्रमाणता अदृष्टविषयक है। अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे उपलब्ध न होनेवाले अग्रिहोत्रादिके, साध्य, साधन और सम्बन्धके विषयमें ही श्रुतिकी प्रमाणता है; प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे उपलब्ध हो जानेवाले विषयोंमें नहीं। क्योंकि श्रुतिकी प्रमाणता अदृष्ट विषयको दिखलानेके लिये ही हैं (अर्थात् अप्रत्यक्ष विषयको बतलाना ही उसका काम है ) ।
सुतरां देहादि संघातमें, प्रत्यक्ष ही मिथ्या ज्ञानसे होनेवाली अहंप्रतोतिको गौण मानना नहीं बन सकता।
न हि श्रुतिशतम् अपि शीतः अग्निः अप्रकाशो वा इति ब्रुवत् प्रामाण्यम् उपैति । यदि ब्रूयात् शीतः अग्निः अप्रकाशो वा इति अथापि अर्थान्तरं श्रुतेः विवक्षितं कल्प्यं प्रामाण्यान्यथानुपपत्तेः न तु प्रमाणान्तरविरुद्धं स्ववचनविरुद्धं वा ।
क्योंकि 'अनि ठण्डा है या अप्रकाशक है' ऐसा कहनेवाली सैकड़ों श्रुतियाँ भी प्रमाणरूप नहीं मानी जा सकतीं। यदि श्रुति ऐसा कहे कि ' अग्रि ठण्डा है अथवा अप्रकाशक है' तो ऐसा मान लेना चाहिये कि श्रुतिको कोई और ही अर्थ अभीष्ट है क्योंकि अन्य प्रकारसे उसकी प्रामाणिकता सिद्ध नहीं हो सकती। परंतु प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणके विरुद्ध या श्रुतिके अपने वचनोंके विरुद्ध श्रुतिके अर्थकी कल्पना करना उचित नहीं ।
पू० कर्म मिथ्या ज्ञानयुक्त पुरुषद्वारा ही किये जानेवाले हैं, ऐसा माननेसे वास्तवमें कर्ताका अभाव हो जानेके कारण श्रुतिकी अप्रमाणता (अनर्थकता ) अभावे श्रुतेः अप्रामाण्यम् इति चेत् । ही सिद्ध होती है ऐसा कहें तो ?
उ०- नहीं, क्योंकि ब्रह्मविद्यामें उसकी सार्थकता सिद्ध होती है।
(न, ब्रह्मविद्यायाम् अर्थवत्त्वोपपत्तेः ।)
पू० कर्मविधायक श्रुतिकी भाँति ब्रह्मविद्या विधायक श्रुतिकी अप्रमाणताका प्रसङ्ग आ जायगा, ऐसा माने तो ?
उ०- यह ठीक नहीं, क्योंकि उसका कोई बाधक प्रत्यय नहीं हो सकता। अर्थात् जैसे ब्रह्मविद्याविधायक श्रुतिद्वारा आत्मसाक्षात्कार हो जानेपर, देहादि संघातमें आत्मबुद्धि बाधित हो जाती है, वैसे आत्मामें ही होनेवाला आत्मभावका बोध किसीके द्वारा किसी भी कालमें किसी प्रकार भी बाधित नहीं किया जा सकता। क्योंकि वह आत्मज्ञान स्वयं ही फल है, उससे भिन्न किसी अन्य फलकी प्राप्ति नहीं है, जैसे अग्रि उष्ण और प्रकाशस्वरूप है।
न च कर्मविधिश्रुतेः अप्रामाण्यम्, पूर्वपूर्व- प्रवृत्तिनिरोधेन उत्तरोत्तरापूर्वप्रवृत्तिजननस्य प्रत्यगात्माभिमुख्यप्रवृत्त्युत्पादनार्थत्वात् मिथ्यात्वे अपि उपायस्य उपेयसत्यतया सत्यत्वम् एव स्याद् यथा अर्थवादानां विधिशेषाणाम् ।
इसके सिवा (वास्तवमें) कर्मविधायक श्रुति भी अप्रामाणिक नहीं है, क्योंकि वह पूर्व-पूर्व (स्वाभाविक) प्रवृत्तियों को रोक-रोककर उत्तरोत्तर नयी नयी (शास्त्रीय) प्रवृत्तिको उत्पन्न करती हुई (अन्तमें अन्तःकरणकी शुद्धिद्वारा साधकको) अन्तरात्माके सम्मुख करनेवाली प्रवृत्ति उत्पन्न करती है। अतः उपाय मिथ्या होते हुए भी, उपेयकी सत्यतासे, उसकी सत्यता ही है; जैसे कि विधिवाक्यके अन्तमें कहे जानेवाले अर्थवादवाक्योंकी सत्यता मानी जाती हैं।
लोकव्यवहारमें भी (देखा जाता है कि) उन्मत्त और बालक आदिको दूध आदि पिलानेके लिये चोटी बढ़ने आदिकी बात कही जाती है।
तथा आत्मज्ञान होनेसे पहले, देहाभिमाननिमित्तक प्रत्यक्षादि प्रमाणोंके प्रमाणत्वकी भाँति प्रकारान्तरमें स्थित (कर्मविधायक) श्रुतियोंकी साक्षात् प्रमाणता भी सिद्ध होती है।
तुम जो यह मानते हो कि आत्मा स्वयं क्रिया न करता हुआ भी संनिधिमात्रसे कर्म करता है, यही आत्माका मुख्य कर्तापन हैं। जैसे राजा स्वयं युद्ध न करते हुए भी संनिधिमात्रसे ही अन्य योद्धाओंके युद्ध करनेसे 'राजा युद्ध करता है' ऐसे कहा जाता है तथा 'वह जीत गया, हार गया ऐसे भी कहा जाता है इसी प्रकार सेनापति भी केवल वाणीसे ही आज्ञा करता है। फिर भी राजा और सेनापतिका उस क्रियाके फलसे सम्बन्ध होता देखा जाता है तथा जैसे ऋत्विक्के कर्म यजमानके माने जाते हैं, वैसे ही देहादि संघातके कर्म आत्मकृत हो सकते हैं, क्योंकि उनका फल आत्माको ही मिलता है।
तथा जैसे भ्रामक ( भ्रमण करानेवाला चुम्बक) स्वयं क्रिया नहीं करता, तो भी वह लोहेका चलाने वाला है, इसलिये उसीका मुख्य कर्तापन है, वैसे ही आत्माका मुख्य कर्तापन है।
यथा च भ्रामकस्य लोहभ्रामयितृत्त्वाद् अव्याप्तस्य एव मुख्यम् एव कर्तृत्वं तथा च आत्मन इति ।
ऐसा मानना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा माननेसे न करनेवालेको कारक माननेका प्रसङ्ग आ जायगा।
यदि कहो कि कारक तो अनेक प्रकारके होते हैं, तो भी तुम्हारा कहना ठीक नहीं; क्योंकि राजा आदिका मुख्य कर्तापन भी देखा जाता है। अर्थात् राजा अपने निजी व्यापारद्वारा भी युद्ध करता है तथा योद्धाओंसे युद्ध कराने और उन्हें धन देनेसे भी निःसन्देह उसका मुख्य कर्तापन है, उसी प्रकार जय-पराजय आदि फलभोगों में भी उसकी मुख्यता है।
वैसे ही यजमानका भी प्रधान आहुति स्वयं देनेके कारण और दक्षिणा देनेके कारण निःसन्देह मुख्य कर्तृत्व हैं।
तथा यजमानस्य अपि प्रधानत्यागेन दक्षिणादानेन च मुख्यम् एव कर्तृत्वम्।।
इससे यह निश्चित होता है कि क्रियारहित वस्तुमें जो कर्तापनका उपचार है वह गौण है। यदि राजा और यजमान आदिमें स्वव्यापाररूप मुख्य कर्तापन न पाया जाता तो उनका संनिधिमात्रसे भी मुख्य कर्तापन माना जा सकता था, जैसे कि लोहेको चलाने में चुम्बकका संनिधिमात्र से मुख्य कर्तापन माना जाता है, परंतु चुम्बककी भाँति राजा और यजमानका स्वव्यापार उपलब्ध न होता हो ऐसी बात नहीं है सुतरां संनिधिमात्र से जो कर्तापन है वह भी गौण ही है।
ऐसा होनेसे उसके फलका सम्बन्ध भी गौण ही होगा, क्योंकि गौण कर्ताद्वारा मुख्य कार्य नहीं किया जा सकता। अतः यह मिथ्या ही कहा जाता है कि 'निष्क्रिय आत्मा देहादिकी क्रियासे कर्ता-भोक्ता हो जाता है।
परंतु भ्रान्तिके कारण सब कुछ हो सकता है। जैसे कि स्वप्न और मायामें होता है। परंतु शरीरादिमें आत्मबुद्धिरूप अज्ञान सन्ततिका विच्छेद हो जानेपर, सुषुप्ति और समाधि आदि अवस्थाओंमें कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनर्थ उपलब्ध नहीं होता।
तस्माद् भ्रान्तिप्रत्ययनिमित्त एव अयं संसारभ्रमो न तु परमार्थ इति सम्यग्दर्शनाद अत्यन्तम् एव उपरम इति सिद्धम् ॥
इससे यह सिद्ध हुआ कि यह संसारभ्रम मिथ्या ज्ञान निमित्तक ही है, वास्तविक नहीं, अतः पूर्ण तत्त्वज्ञानसे उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति हो | जाती है ॥
—श्रीमद्भगवद्गीता ( शाङ्कर भाष्य)
(श्रीमज्जगद्गुरु आदि शङ्कराचार्य:)🌸हरिः शरणम्🌸
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