"ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।" Know the real meaning of it and solutions for misinterpretations. इस चौपाई का वास्तविक अर्थ जाने एवं गलत अर्थों का निराकरण #"ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।" #realmeaning #सहीअर्थ



सर्वप्रथम जानते है आक्षेप क्या लगाया जाता है:

आक्षेप— तुलसी दास जी ने नारी एवम् शूद्र सज्जनो का अपमान किया ऐसा प्रचलित है।

( किंतु यह मात्र वास्तविक अर्थ न जानने के कारण दुर्दशा है)


अब वास्तविक अर्थ से पहले हम कुछ प्रचलित गलत अर्थ बताते है एवं उसका निराकरण करते है।

अस्तु


गलत अर्थ:

१) तुलसीपीठाधीश्वर स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज एवं उनके मत से साम्यता रखने वाले महानुभावों का मानना है कि यह चौपाई ही अशुद्ध है। तुलसीदास जी ने ऐसा कुछ लिखा ही नहीं। मूल चौपाई में "सूद्र पसु नारी" नहीं है, अपितु "क्षुब्ध पसु रारी' है। यद्यपि कई स्थानों पर स्वामी रामभद्राचार्य जी ने "सूद्र पसु नारी" परक अर्थ भी उपदिष्ट किया है, किन्तु स्त्री को मारने की बात से वे सहमत नहीं हैं।


२) दूसरा मत श्रीसर्वेश्वर रघुनाथ भगवान् मन्दिर के श्रीमहन्त आचार्य सियारामदास नैयायिक जी महाराज एवं उनके मत से साम्यता रखने वाले लोगों का है, जिसमें वे कहते हैं कि चौपाई तो सही है, "सूद्र पसु नारी" ही मूलतः शुद्ध है, किन्तु यहां 'नारी' शब्द का अर्थ नर-नारी वाला स्त्रीपरक न होकर 'आपो नारा इति प्रोक्ताः' आदि के आधार पर नार का जलपरक अर्थ लेते हुए, नारी(न्) का अर्थ समुद्र है। प्रकरण में समुद्र का ही ताडन हुआ है, इसीलिए जिसमें नार अर्थात् जल हो, वह नारी(न्), अर्थात् समुद्र है, स्त्री नहीं। स्त्रीपरक अर्थ करने वाले लोग मूर्ख हैं।


३) तीसरा मत कुछ अन्य विद्वानों का है, जो यह मानते हैं कि चौपाई शुद्ध है, "सूद्र पसु नारी" ही सही है, और नारी का अर्थ समुद्र न होकर स्त्री ही है। किन्तु यह वाक्य स्वयं समुद्र ने भयातुर होकर श्रीरामजी से कहा है, अतएव यह उसका निजी मत है। जैसे रावण ने भी बहुत सी बातें कही हैं, तो उसकी बातों को शास्त्रवाक्य नहीं मान सकते। ऐसे ही समुद्र की कही यह बात भयाक्रान्त होकर उसके मुख से निकला निजी मत है, कोई शास्त्रवाक्य नहीं।


४) चौथा मत उन लोगों का है, जो यह मानते हैं कि चौपाई शुद्ध है, "सूद्र पसु नारी" ही सही है, नारी का अर्थ समुद्र न होकर स्त्री ही है, साथ ही समुद्र के द्वारा कथित यह उक्ति उसका निजी मत न होकर शास्त्रवाक्य के रूप में ग्राह्य भी है किन्तु यहाँ 'ताड़ना' शब्द का अर्थ 'मारना' नहीं है, अपितु 'देखना/निरीक्षण करना' है। जैसे बहुत सी क्षेत्रीय भाषाओं में 'ताड़ना' - 'देखना' समानार्थक है, तो गोस्वामीजी ने ग्राम्य शैली का प्रयोग किया है।


अब इन सभी गलत तर्कों का निराकरण:—


निग्रहाचार्य: श्रीभागवतानंद  गुरुना~

अस्तु


👉सबसे पहले हम बात करेंगे आपके द्वारा प्रस्तुत चौथे मत की, जिसमें कहा गया कि सब सही है किन्तु ताड़ना का अर्थ 'देखना' है। यह व्याख्या प्रथम 'ढोल' से खण्डित हो जाती है, क्योंकि ढोल को देखते रहने मात्र से उसकी कोई उपयोगिता नहीं होगी। ढोल की सार्थकता 'विधिपूर्वक' ताड़न (पीटने) में ही है, न कि देखते रहने में।


👉उसके बाद जो लोग यह कहते हैं कि चौपाई अशुद्ध है, वहाँ 'सूद्र पसु नारी' नहीं, अपितु 'क्षुब्ध पसु रारी' है, उन्हें और उनकी विद्वत्ता को मैं दूर से ही प्रणाम करता हूँ। ऐसे लोग समयानुसार अपनी सुविधा के अनुसार और विद्वदजीर्ण के प्रभाव में शास्त्रीय वाक्यों को प्रामाणिक-प्रक्षिप्त, शुद्ध-अशुद्ध कहते रहते हैं। यह तो वही बात हुई कि पिता के ऊपर चोरी का झूठा आरोप लगने पर उसका भयाक्रान्त पुत्र, उस आरोप का सप्रमाण खण्डन करने के स्थान पर यह कहने लगे कि 'मैं इस व्यक्ति को नहीं जानता, यह मेरा पिता है ही नहीं, मैं तो डाउनलोड हुआ था।'


👉जो लोग यह कहते हैं कि सभी बातें ठीक हैं किन्तु यह समुद्र का निजी मत है, उसे शास्त्रवाक्य नहीं मान सकते, इनकी महानता को भी मैं प्रणाम करता हूँ। देखिए, समुद्रदेव एवं भगवान् श्रीरामजी के मध्य हुए इस संवाद को हमने और आपने तो प्रत्यक्ष देखा नहीं। सर्वस्य लोचनं शास्त्रम्। शास्त्र ही सबके नेत्र हैं, उन्हीं शास्त्रों में वर्णित कथानक के माध्यम से देखा। भला हो ऐसे लोगों का, जो यह कह सकते थे कि समुद्र ने ऐसा कुछ कहा ही नहीं था, वो तो तुलसीदास जी ने अपने मन से अपना 'निजी मत' जोड़ दिया। किन्तु इनकी उदारता तो देखिए कि तुलसीदास जी की वकालत करने के फेर में इन्होंने तुलसीदास जी को मात्र कथा लेखक की भूमिका में रखते हुए समुद्रदेव को ही भ्रान्तचित्त बताकर उनके वचन को अप्रामाणिक कह दिया। वैसे भी समुद्र तो इनसे आकर लड़ेंगे नहीं।


👉अब हम बात करते हैं उस मत की, जो यह मानता है कि सब सही है किन्तु नारी शब्द का अर्थ स्त्री नहीं है, अपितु स्वयं 'नार' अर्थात् जल को धारण करने वाला समुद्र है। हम एक साथ इस मत और समुद्र के कथन को अप्रामाणिक मानने वाले मत की समीक्षा करेंगे। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने प्रारम्भ में ही स्पष्ट किया कि उन्होंने अपने मन से कुछ जोड़ कर नहीं लिखा है, जो लिखा है वह विभिन्न पुराण, वेद, आगम, अन्य रामायण तथा ग्रन्थों से समर्थित विषयवस्तु के आधार पर ही लिखा है। तो यह प्रस्तुत चौपाई, जो समुद्रदेव ने कही और गोस्वामीजी ने वर्णित की, इसका आधार क्या है ? 


सनातन धर्म में आचार की बड़ी प्रधानता है।

 आचारप्रभवो धर्मः। 

(महाभारत)

धर्म का उद्भव आचार से है। यह भी कहते हैं - 


आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः। 

आचारहीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं करते। शुभाशुभ कर्म तथा उनके परलोक में भोगोपभोग के विषय में जानने हेतु सनातन धर्म में गरुडपुराण की बड़ी महत्ता है। प्रस्तुत चौपाई का आधार गरुडपुराण के आचारकाण्ड में प्राप्त होता है -


दुर्जनाः शिल्पिनो दासा दुष्टाश्च पटहाः स्त्रियः।

ताडिता मार्दवं यान्ति न ते सत्कारभाजनम्॥

(गरुडपुराण, आचारकाण्ड, अध्याय - १०९, श्लोक - ३१)


उपर्युक्त श्लोक में स्पष्ट कहते हैं - जो शिल्पी (कारीगर), दास दुर्जन हैं, ढोल आदि वाद्ययन्त्र हैं और दुष्टा स्त्रियाँ हैं, ये ताड़ना से मृदुता को प्राप्त करते हैं, अतः ये सत्कार के अधिकारी नहीं हैं। (यह सामान्य शब्दार्थ है, विवक्षया आगे बतायेंगे)


अब इसी श्लोक का भाव समुद्रदेव ने भी कहा है, जिसे गोस्वामीजी ने लिपिबद्ध किया है। यहाँ तो नारी शब्द का अर्थ समुद्र भी नहीं लगा सकते क्योंकि विशेषतः स्त्री शब्द आ चुका है, तो सिद्ध होता है कि उस प्रसङ्ग में नारी का अर्थ समुद्र न लगाकर, स्त्री लगाने वाले लोग "मूर्ख नहीं हैं।"


अब स्त्रियों को ताडित करने की बात क्यों है, इसके लिए इसी अध्याय में श्लोक ३८-३९ में सिद्धान्त बताया है। वहाँ नदी और नारी की तुलना की गयी है। जल तो नदी में भी होता ही है, किन्तु वहाँ अलग से नदी और नारी कहा, नारी का अर्थ वहाँ भी स्त्री ही है। कहते हैं - 


नद्यश्च नार्यश्च समस्वभावाः स्वतन्त्रभावे गमनादिके च।

तोयैश्च दोषैश्च निपातयन्ति नद्यो हि कूलानि कुलानि नार्यः॥

नदी पातयते कूलं नारी पातयते कुलम्।

नारीणाञ्च नदीनाञ्च स्वच्छन्दा ललिता गतिः॥

(गरुड़ पुराण,आचारकाण्ड, अध्याय - १०९,श्लोक ३८-३९ )


यदि बिल्कुल स्वतन्त्र (बिना नियन्त्रण के) छोड़ दिया जाये तो गमन के सन्दर्भ में नदी और नारी का स्वभाव एक ही होता है। अनियन्त्रित स्वभाव वाली नदी अपने जल से किनारों की डुबा देती है तो अनियन्त्रित स्त्री अपने दोषों से कुल को डुबा देती है। 


ध्यातव्य है कि स्त्री का नियन्त्रण करने का अर्थ उसे बांधकर रखना नहीं है। माता, पिता, गुरुजन अपने आचरणों से आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपनी कन्या को श्रेष्ठ संस्कार दें, वही उसके लिये मर्यादा और नियन्त्रण का कार्य करता है। 


अब यहाँ जो ताडन शब्द आया है, उसे भोजपुरी, अवधी आदि ग्राम्यभाषा में 'देखने' के अर्थ में भी नहीं ले सकते क्योंकि एक तो श्लोक संस्कृत का है, दूसरे पटह (ढोल) को मात्र आंखों से देखने में उसकी क्या उपयोगिता ? बृहद्विष्णुस्मृति में ताडन का उद्देश्य और विधि स्पष्ट की गयी है।


शास्यं शासनार्थं ताडयेत्। तं वेणुदलेन रज्ज्वा वा पृष्ठे। 

(बृहद्विष्णुस्मृति, अध्याय - ७१, सूत्र - ८१-८२)


अर्थात्, जो शासन करने योग्य हैं (आपके अधीनस्थ लोग), उनपर शासन करने हेतु उनकी ताडना करे। (कैसे करे ?) पीठ पर बांस की छड़ी अथवा रस्सी से ताडित करे। 


तो ताडना शब्द का जो अर्थ 'देखना' लगा रहे हैं, वह निरस्त हो गया।


ये तो हुई नारी की बात। 


अब शूद्र की भी बात करते हैं। शिल्पी और दास शब्द से उस श्लोक में शूद्र का परिलक्षण होता है क्योंकि शिल्पकर्म (कारीगरी) और दासकर्म (नौकरी, वेतन) शूद्रधर्म के अन्तर्गत व्यवस्थित है।


🌸 ध्यान रहे, दास और दासकर्म का अर्थ वो Slavery नहीं है, जो अमेरिका, अरब और अफ्रीका में होती थी। भारतीय समाज के सन्दर्भ में दासप्रथा और दास शब्द का जो अर्थ और इतिहास है, उसका विस्तृत वर्णन मैंने अपनी पुस्तक 'उत्तरकाण्ड प्रसङ्ग एवं संन्यासाधिकार विमर्श' के प्रथम भाग में किया है। उस विषय के लेख को मेरी पुस्तक 'अमृत वचन' में भी पढ़ा जा सकता है।


महाभारत के अनुशासनपर्व में कहते हैं -


कारुकर्म च नाट्यं च प्रायशो नीचयोनिषु। 

तयोरपि यथायोगं न्यायतः कर्मवेतनम्॥


कारीगरी और अभिनय, यह प्रायः शुद्र वर्ण व्यक्ति करतें हैं। उनको भी यथायोग्य (परिश्रम के अनुसार) न्यायोचित वेतन दिया जाना चाहिए। 


व्याख्यातः शूद्रधर्मोऽपि जीविका कारुकर्म च।

तद्वद्द्विजातिशुश्रूषा पोषणं क्रयविक्रयौ॥

(मार्कण्डेय पुराण, अध्याय - २८)


शूद्रधर्म भी बताया जाता है। उनकी आजीविका कारीगरी, एवं खरीद-बिक्री (व्यापार) से बतायी गयी है।


शुश्रूषैव द्विजातीनां शूद्राणां धर्मसाधनम्।

कारुकर्म तथाजीवः पाकयज्ञादि धर्मतः॥

(कूर्मपुराण, पूर्वभाग, अध्याय - ०२)


शूद्रों के धर्म की सिद्धि एवं आजीविका कारीगरी एवं धर्मपूर्वक पाकयज्ञ आदि के माध्यम से होती है।


सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति दिवानिशम्।

एवं ते विहिता देवि लोकयात्रा स्वयम्भुवा॥

तथैव शूद्रा विहिताः सर्वधर्मप्रसाधकाः।

शूद्राश्च यदि ते न स्युः कर्मकर्ता न विद्यते॥

त्रयः पूर्वे शूद्रमूलाः सर्वे कर्मकराः स्मृताः।

ब्राह्मणादिषु शुश्रूषा दासधर्म इति स्मृतः॥

वार्ता च कारुकर्माणि शिल्पं नाट्यं तथैव च।

अहिंसकः शुभाचारो देवताद्विजवन्दकः॥

शूद्रो धर्मफलैरिष्टैः स्वधर्मेणोपपद्यते।

एवमादि तथान्यच्च शूद्रधर्म इति स्मृतः॥

(महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय - २०८, श्लोक - ३२-३६)


भगवान् शिव कहते हैं - हे देवि ! तीनों वर्ग (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य) का 'अपनी शक्ति के अनुसार' दिन-रात सेवा करना ही, शूद्रवर्ण के लिए ब्रह्मदेव ने आजीविका निश्चित की है। (मैंने दासप्रथा से सम्बन्धित अपने लेख में सिद्ध किया है कि यह सेवा कोई गुलामी नहीं, अपितु वैतनिक नौकरी थी, जैसा कि आजकल सभी नौकरी के पीछे भाग रहे हैं)


🌺अतएव शूद्रों को सबों के धर्मों का साधक बताया गया है, क्योंकि यदि शूद्र न होते तो कोई कर्मचारी भी नहीं होता। पूर्व के तीनों (द्विजाति) शूद्र के आश्रय से ही कर्म करने वाले कहे गये हैं, ब्राह्मण आदि की शुश्रूषा को ही दासधर्म कहा गया है। 🌺


खेती, कारीगरी, शिल्प, अभिनय आदि, हिंसावृत्ति का त्याग, शुभ आचरण, यही सब कर्म शूद्रों का धर्म है, इसीलिए उसका धर्म उसके अपने कर्म से ही उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्रारम्भ (ब्राह्मण) और अन्य (क्षत्रिय और वैश्य के साथ) शूद्रों का धर्म बताया गया है।


✨अब प्रश्न उठता है कि क्या जब ताडन का अर्थ मारना है, और गरुडपुराण के श्लोक एवं श्रीरामचरितमानस की चौपाई में शूद्र तथा स्त्री का वर्णन भी है तो क्या उन्हें मारते पीटते रहना चाहिए ? तो उत्तर है, बिल्कुल नहीं। यह विधि केवल दुर्जन शूद्र एवं दुष्टा स्त्री हेतु है, निर्दोष हेतु नहीं।


निर्दोषं ताडयेत्पश्चान्मोहात्पापेन केनचित् ।

स पापी पापमाप्नोति निर्दोषस्य शरीरजम्॥

(पद्मपुराण, भूमिखण्ड, अध्याय - ३३, श्लोक - १२)


जो व्यक्ति किसी मोह या पापबुद्धि के कारण किसी निर्दोष को ताडित करता (मारता पीटता) है, वह पापी उस निर्दोष के शरीर में जितने पाप हैं, उन्हें ग्रहण कर लेता है। किसी को पीड़ा न पहुंचाये। हां, अपने पुत्र और शिष्य को मार सकते हैं। 


न कुर्यात्कस्यचित्पीडां सुतं शिष्यं तु ताडयेत्।

(पद्मपुराण, स्वर्गखण्ड, अध्याय - ५५)


लेकिन पुत्र और शिष्य को भी अकारण ही नहीं मारना चाहिए, अपितु उनका अपराध होने पर उचित मार्ग की शिक्षा देने हेतु ही ऐसा करना चाहिए। महाभारत के अनुशासनपर्व में कहते हैं -

अन्यत्र पुत्राच्छिष्याच्च शिक्षार्थं ताडनं स्मृतम्। भविष्यपुराण के उत्तरपर्व में कहते हैं कि शिक्षा देने के अतिरिक्त प्रसङ्ग में शिष्य और पुत्र को नहीं मारना चाहिए - नान्यत्र पुत्रशिष्याभ्यां शिक्षया ताडनं स्मृतम्।


यदि शिल्पी, दास (शूद्र) निर्दोष हो तो उसे कदापि नहीं मारना चाहिए, किन्तु यदि दोषी हो तो ? उस समय कहा - 


कर्मारम्भं तु यः कृत्वा सिद्धं नैव तु कारयेत् ।

बलात्कारयितव्योऽसौ अकुर्वन्दण्डं अर्हति॥

(बृहत्कात्यायनस्मृति, श्लोक - ६५७)


जो कारीगर एक बार कार्य प्रारम्भ करके उसे बिना पूरा किए छोड़ देता है, उससे वह कार्य बलपूर्वक पूरा करवाना चाहिए, न करने पर उसे दण्डित करना चाहिए। 

(Also Modern Law of contract)


🌸अर्थशास्त्र की दृष्टि से बिल्कुल यह उपयुक्त है अन्यथा राष्ट्र की सारी व्यवस्था ही चौपट एवम समाप्त हो जायेगी।


✨शूद्र के अतिरिक्त अन्य जन वही पाप करें तो शूद्र से दुगुना वैश्य, उससे दुगुना क्षत्रिय और उससे दुगुना ब्राह्मण को दण्ड मिलता है। 


निर्दोष के प्रति द्वेषपूर्वक ताडन करना, उसे बन्धन में डालना, उसके प्रति अपशब्दों का प्रयोग करना, दुराचार कहलाता है। वह सज्जनों का मार्ग नहीं है। 


श्री भरतमुनि जी ने उपदिष्ट किया है - 

ताडनं बन्धनं चापि यो विमृश्य समाचरेत्॥

तथा परुषवाक्यश्च दुराचारः स तन्यते॥

(नाट्यशास्त्र, अध्याय - २२)


दुराचार करने से आयु की हानि होती है, व्यक्ति नरक जाता है। स्त्रियों के अनियन्त्रित होने से दुराचार बढ़ता है, वर्णसङ्करता फैलती है। महाभारत के अनुशासनपर्व में कहते हैं - 


ये नास्तिका निष्क्रियाश्च गुरुशास्त्रातिलङ्घिनः।

अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः॥

विशीला भिन्नमर्यादा नित्यं सङ्कीर्णमैथुनाः।

अल्पायुषो भवन्तीह नरा निरयगामिनः॥


जो लोग ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते, स्वकर्म का परित्याग करते हैं, अपने गुरु एवं शास्त्रों की अवहेलना करते हैं, अधर्म का समर्थन करने वाले दुराचारी हैं, उनकी आयु नष्ट होती है। जो शीलरहित हैं, मर्यादा को खण्डित करने वाले हैं, नित्य (अविधिपूर्वक) सम्भोग करने वाले हैं, वे लोग आयुहीन होकर नरक में जाते हैं।


आगे यह भी कहते हैं - 

यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम्।

तादृशं विद्यते किञ्चिदनायुष्यं नृणामिह।

यावन्तो रोमकूपाः स्युः स्त्रीणां गात्रेषु निर्मिताः।

तावद्वर्षसहस्राणि नरकं पर्युपासते॥

परायी स्त्री से सम्भोग करने के समान, पुरुष के लिये कोई दूसरा आयुनाशक पाप नहीं है। उस स्त्री के शरीर में जितने रोम हैं, उतने सहस्र वर्षों पर व्यभिचारी को नरक में रहना होता है।


तो भाव यह है कि व्यभिचार का दण्ड केवल पुरुष को ही नहीं, स्त्री को भी भोगना पड़ता है। स्त्री यदि अपने संस्कार और मर्यादा में दृढ़ रहे, तो कोई परपुरुष व्यभिचार नहीं कर पायेगा। यदि कदाचित् बलात्कार कर दे तो स्त्री को कोई पाप या दोष नहीं लगेगा, अपितु वह पुरुष ही घोर दण्ड का भागी होगा। किन्तु स्त्री ही दुष्टा हो जाये तो ?


श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन यही चिन्ता तो व्यक्त करते हैं - स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः। हे कृष्ण ! स्त्रियों के दुष्ट हो जाने पर वर्णसङ्कर उत्पन्न होने लगते हैं। और दुष्टा स्त्रियों के लिए ताडन का विधान है, सत्कार का नहीं, यह गरुड़पुराण के आचारकाण्ड ने बताया, जो बात गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखी है। जो सज्जन हैं, निर्दोष हैं, वह शूद्र और स्त्री तो सदैव उत्तम व्यवहार के योग्य हैं, उन्हें मारने से घोर नरक जाना पड़ता है।


 महाराज ययाति को देवराज इन्द्र के सारथी मातलि ने बताया है कि कौन कौन से कर्म मनुष्य को नरक ले जाते हैं। विषय बहुत लंबा है, बहुत पाप हैं, प्रासङ्गिक पापों की चर्चा करते हैं -


परदाराभिगमनं साध्वीकन्याभिदूषणम्।

×××××××××

गवां क्षत्रियवैश्यानां स्त्रीशूद्राणाञ्च घातनम्।

शिवायतनवृक्षाणां पुण्यारामविनाशनम्॥

×××××××××

निर्दयोऽतीव भृत्येषु पशूनां दमकश्च यः।

×××××××××

यो भार्यापुत्रमित्राणि बालवृद्धकृशातुरान्।

भृत्यानतिथिबन्धूंश्च त्यक्त्वाश्नाति बुभुक्षितान्॥

×××××××××

साधून्विप्रान्गुरूंश्चैव यश्च गां हि प्रताडयेत्।

ये ताडयन्त्यदोषाञ्च नारीं साधुपदे स्थिताम्॥

×××××××××

यः करोति स्वयं कर्म कारयेद्वानुमोदयेत्।

कायेन मनसा वाचा तस्य चाधोगतिः फलम्॥

(पद्मपुराण, भूमिखण्ड, अध्याय- ६७)


देव मातलि कहते हैं - महाराज ययाति ! दूसरे की स्त्री से रमण करना, शुभ आचरण वाली कन्या को (बलात्कार आदि से) दूषित करना, गौ की हत्या करना, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र आदि को मारना, मन्दिर, वृक्ष, बगीचे आदि को नष्ट करना, अपने नौकरों से निर्दयतापूर्वक व्यवहार करने वाला, पशुओं को बर्बरता से मारने वाला, जो अपनी भूख से छटपटाती हुई पत्नी, पुत्र, मित्र, बालक, वृद्ध, दुर्बल, नौकर, अतिथि और अन्य बन्धुओं को बिना भोजन दिए खाता है, साधु, ब्राह्मण, गुरुजनों और गौ को प्रताड़ित करना, अच्छे आचरण वाली निर्दोष नारी (स्त्री) को ताडित करना, जो स्वयं ऐसा करता है अथवा किसी से करवाता है अथवा शरीर, मन या वाणी से समर्थन करता है, उसे नरक में अधोगति मिलती है।


🌸इस प्रकार से निष्पक्षता एवं निर्भयता से पूरे प्रकरण का अध्ययन करने पर मैं इस निष्कर्ष पर आता हूँ कि चाहे कोई कुछ भी कहे, 'ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताडना के अधिकारी॥' 

यह चौपाई शुद्ध है, प्रामाणिक है, यहाँ नारी का अर्थ स्त्री एवं ताडना का अर्थ मारना ही है, किन्तु यह मर्यादा की रक्षा हेतु केवल दुष्ट आचरण करने वालों के सन्दर्भ में है, जो कि 'कानून-व्यवस्था' के लिए नितान्त आवश्यक है। इस चौपाई में सामान्य और सरल शासनधर्म का उपदेश है, इसकी अनावश्यक रूप से अनर्थकारिणी व्याख्या मूल शास्त्रीय आलोक को नष्ट करती है।🌸


निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु

Nigrahacharya Shri Bhagavatananda Guru




श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड निग्रहाचार्य जी 
















Comments

Popular posts from this blog

एकादशी व्रत कैसे करें? क्या करें क्या न करें? सम्पूर्ण दिनचर्या कैसे रहे? How to do Ekadashi Vrat? What to do and what not? How should be the whole routine? #ekadashi #vrat

Is Shri Radha ji mentioned in shastras? Is she creation of jaydev goswami? क्या श्री राधा जी का वर्णन शास्त्रों में आता है? क्या वे जयदेव गोस्वामी की कल्पना थी? #shriradha #radhakrishna

जन्माष्टमी व्रतविधि: Janmashtami Vrat Vidhi